ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 115 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
अत्थि त्ति य णत्थि त्ति य हवदि अवत्तव्वमिदि पुणो दव्वं । (115)
पज्जाएण दु केण वि तदुभयमादिट्ठमण्णं वा ॥125॥
अर्थ:
द्रव्य किसी पर्याय से अस्ति, किसी पर्याय से नास्ति, किसी पर्याय से अवक्तव्य और किसी पर्याय से अस्ति-नास्ति अथवा किसी पर्याय से अन्य तीन भंग रूप कहा गया है ।
तात्पर्य-वृत्ति:
अथसमस्तदुर्नयैकान्तरूपविवादनिषेधिकां नयसप्तभङ्गीं विस्तारयति --
अत्थि त्ति य स्यादस्त्येव । स्यादिति कोऽर्थः । कथंचित् । कथंचित्कोऽर्थः । विवक्षितप्रकारेण स्वद्रव्यादिचतुष्टयेन । तच्चतुष्टयं शुद्ध-जीवविषये कथ्यते । शुद्धगुणपर्यायाधारभूतं शुद्धात्मद्रव्यं द्रव्यं भण्यते, लोकाकाशप्रमिताःशुद्धासंख्येयप्रदेशाः क्षेत्रं भण्यते, वर्तमानशुद्धपर्यायरूपपरिणतो वर्तमानसमयः कालो भण्यते, शुद्धचैतन्यं भावश्चेत्युक्तलक्षणद्रव्यादिचतुष्टय इति प्रथमभङ्गः १ । णत्थि त्ति य स्यान्नास्त्येव । स्यादिति कोऽर्थः । कथंचिद्विवक्षितप्रकारेण परद्रव्यादिचतुष्टयेन २ । हवदि भवति । कथंभूतम् । अवत्तव्वमिदि स्यादवक्तव्यमेव । स्यादिति कोऽर्थः । कथंचिद्विवक्षितप्रकारेण युगपत्स्वपरद्रव्यादिचतुष्टयेन ३ । स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादवक्तव्यं, स्यादस्तिनास्ति, स्यादस्त्येवावक्तव्यं, स्यान्नास्त्येवावक्तव्यं,
स्यादस्तिनास्त्येवावक्तव्यम् । पुणो पुनः इत्थंभूतम् किं भवति । दव्वं परमात्मद्रव्यं कर्तृ । पुनरपि कथंभूतंभवति । तदुभयं स्यादस्तिनास्त्येव । स्यादिति कोऽर्थः । कथंचिद्विवक्षितप्रकारेण क्रमेण स्वपर-द्रव्यादिचतुष्टयेन ४ । कथंभूतं सदित्थमित्थं भवति । आदिट्ठं आदिष्टं विवक्षितं सत् । केन कृत्वा ।पज्जाएण दु पर्यायेण तु प्रश्नोत्तररूपनयविभागेन तु । कथंभूतेन । केण वि केनापि विवक्षितेननैगमादिनयरूपेण । अण्णं वा अन्यद्वा संयोगभङ्गत्रयरूपेण । तत्कथ्यते --
स्यादस्त्येवावक्तव्यं । स्यादितिकोऽर्थः । कथंचित् विवक्षितप्रकारेण स्वद्रव्यादिचतुष्टयेन युगपत्स्वपरद्रव्यादिचतुष्टयेन च ५ ।स्यान्नास्त्येवावक्त व्यं । स्यादिति कोऽर्थः । क थंचित् विवक्षितप्रकारेण परद्रव्यादिचतुष्टयेनयुगपत्स्वपरद्रव्यादिचतुष्टयेन च ६ । स्यादस्तिनास्त्येवावक्तव्यं । स्यादिति कोऽर्थः । कथंचित्विवक्षितप्रकारेण क्रमेण स्वपरद्रव्यादिचतुष्टयेन युगपत्स्वपरद्रव्यादिचतुष्टयेन च ७ । पूर्वं पञ्चास्तिकायेस्यादस्तीत्यादिप्रमाणवाक्येन प्रमाणसप्तभङ्गी व्याख्याता, अत्र तु स्यादस्त्येव, यदेवकारग्रहणं तन्नयसप्तभङ्गीज्ञापनार्थमिति भावार्थः । यथेदं नयसप्तभङ्गीव्याख्यानं शुद्धात्मद्रव्ये दर्शितं तथा यथासंभवं सर्वपदार्थेषु द्रष्टव्यमिति ॥१२५॥
एवं नयसप्तभङ्गीव्याख्यानगाथयाष्टमस्थलं गतम् । एवं पूर्वोक्त-प्रकारेण प्रथमा नमस्कारगाथा, द्रव्यगुणपर्यायकथनरूपेण द्वितीया, स्वसमयपरसमयप्रतिपादनेन तृतीया, द्रव्यस्य सत्तादिलक्षणत्रयसूचनरूपेण चतुर्थीति स्वतन्त्रगाथाचतुष्टयेन पीठिकास्थलम् ।तदनन्तरमवान्तरसत्ताकथनरूपेण प्रथमा, महासत्तारूपेण द्वितीया, यथा द्रव्यं स्वभावसिद्धं तथा सत्तागुणोऽपीति कथनरूपेण तृतीया, उत्पादव्ययध्रौव्यत्वेऽपि सत्तैव द्रव्यं भवतीति कथनेन चतुर्थीति गाथाचतुष्टयेन सत्तालक्षणविवरणमुख्यता । तदनन्तरमुत्पादव्ययध्रौव्यलक्षणविवरणमुख्यत्वेन गाथात्रयं, तदनन्तरं द्रव्यपर्यायकथनेन गुणपर्यायक थनेन च गाथाद्वयं, ततश्च द्रव्यस्यास्तित्वस्थापनारूपेण प्रथमा, पृथक्त्वलक्षणस्यातद्भावाभिधानान्यत्वलक्षणस्य च कथनरूपेण द्वितीया, संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदरूप-स्यातद्भावस्य विवरणरूपेण तृतीया, तस्यैव दृढीकरणार्थं चतुर्थीति गाथाचतुष्टयेन सत्ताद्रव्ययोर-भेदविषये युक्तिकथनमुख्यता । तदनन्तरं सत्ताद्रव्ययोर्गुणगुणिकथनेन प्रथमा, गुणपर्यायाणां द्रव्येणसहाभेदकथनेन द्वितीया चेति स्वतन्त्रगाथाद्वयम् । तदनन्तरं द्रव्यस्य सदुत्पादासदुत्पादयोःसामान्यव्याख्यानेन विशेषव्याख्यानेन च गाथाचतुष्टयं, ततश्च सप्तभङ्गीकथनेन गाथैका चेति समुदायेन चतुर्विंशतिगाथाभिरष्टभिः स्थलैः सामान्यज्ञेयव्याख्यानमध्ये सामान्यद्रव्यप्ररूपणं समाप्तम् । अतःपरं तत्रैव सामान्यद्रव्यनिर्णयमध्ये सामान्यभेदभावनामुख्यत्वेनैकादशगाथापर्यन्तं व्याख्यानं करोति । तत्र क्रमेण पञ्चस्थलानि भवन्ति । प्रथमतस्तावद्वार्तिकव्याख्यानाभिप्रायेण सांख्यैकान्तनिराकरणं,अथवा शुद्धनिश्चयनयेन जैनमतमेवेति व्याख्यानमुख्यतया 'एसो त्ति णत्थि कोई' इत्यादि सूत्रगाथैका । तदनन्तरं मनुष्यादिपर्याया निश्चयनयेन कर्मफलं भवति, न च शुद्धात्मस्वरूपमितितस्यैवाधिकारसूत्रस्य विवरणार्थं 'कम्मं णामसमक्खं' इत्यादिपाठक्रमेण गाथाचतुष्टयं, ततः परं रागादिपरिणाम एव द्रव्यकर्मकारणत्वाद्भावकर्म भण्यत इति परिणाममुख्यत्वेन 'आदा कम्ममलिमसो' इत्यादिसूत्रद्वयं, तदनन्तरं कर्मफलचेतना कर्मचेतना ज्ञानचेतनेति त्रिविधचेतनाप्रतिपादनरूपेण 'परिणमदि चेदणाए' इत्यादिसूत्रत्रयं, तदनन्तरं शुद्धात्मभेदभावनाफ लं कथयन् सन् 'कत्ताकरणं' इत्याद्येकसूत्रेणोपसंहरति । एवं भेदभावनाधिकारे स्थलपञ्चकेन समुदायपातनिका । तद्यथा --
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[अत्थि त्ति य] स्यात् अस्ति ही है । स्यात् का क्या अर्थ है? कथंचित् -यह स्यात् का अर्थ है । कथंचित् का क्या अर्थ है? विवक्षित प्रकार से -किसी अपेक्षासे -स्वद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा से अस्ति है- यह कथंचित् का अर्थ है । शुद्धजीव के विषय में उस स्वचतुष्टय को कहते हैं- शुद्धगुण और शुद्धपर्यायों का आधारभूत शुद्धात्मद्रव्य-द्रव्य कहा जाता है, लोकाकाश प्रमाण शुद्ध असंख्यातप्रदेश-क्षेत्र कहलाता है, वर्तमान शुद्धपर्यायरूप परिणत वर्तमान समय-काल है और शुद्धचैतन्य-भाव; इसप्रकार कहे गये लक्षणवाले द्रव्यादि चतुष्टय रूप 'अस्ति' है - यह पहला भंग है ।
[णत्थि त्ति य] स्यात् नहीं ही है । स्यात् का क्या अर्थ है? कथंचित् - किसी अपेक्षा से -विवक्षित प्रकार से - परद्रव्यादि चतुष्टयरूप से नहीं ही है - यह स्यात् शब्द का अर्थ है- यह दूसरा भंग है ।
[हवदि] है । कैसा है? [अवत्तव्वमिदि] स्यात् अवक्तव्य ही है । स्यात् का क्या अर्थ है? कथंचित्-किसी अपेक्षा से- विवक्षित प्रकार से -एक साथ स्वपरद्रव्यादि चतुष्टयरूप से स्यात् अवक्तव्य ही है -यह स्यात् का अर्थ है - यह तीसरा भंग है ।
इसप्रकार
- स्यात् अस्ति ही है,
- स्यात् नास्ति ही है,
- स्यात् अवक्तव्य ही है,
- स्यात् अस्ति-नास्ति ही है,
- स्यात् अस्ति अवक्तव्य ही है,
- स्यात् नास्ति अवक्तव्य ही है और
- स्यात् अस्ति-नास्ति अवक्तव्य ही है
कैसा सत् इस-इस प्रकार का है? [आदिट्ठं] कहा हुआ विवक्षित प्रकार का सत् इस-इस प्रकार का है । विवक्षित सत् कैसे इस-इस प्रकार का है ? [पज्जायेण दु] पर्याय से प्रश्नोत्तररूप नयविभाग से विवक्षित सत् इस-इस प्रकार का है । कैसी पर्याय से अथवा कैसे? प्रश्नोत्तररूप नयविभाग से उस रूप है । [केण वि] किसी भी विवक्षित-पर्याय से अथवा नैगमादि नयरूप से उसरूप है । [अण्णं वा] और दूसरे तीन संयोगी-भंगरूप से उसरूप है ।
उन संयोगी-भंगों को कहते हैं - स्यात् अस्ति - अवक्तव्य ही है । स्यात् का क्या अर्थ है? कथंचित् - विवक्षित प्रकार से -स्वद्रव्यादि चतुष्टय और एकसाथ स्वपरद्रव्यादि चतुष्टय से स्यात् अस्ति - अवक्तव्य ही है- यह स्यात् का अर्थ है- यह पाँचवाँ भंग है । स्यात् नास्ति-अवक्तव्य ही है । स्यात् का क्या अर्थ है? कथंचित् - विवक्षित प्रकार से-परद्रव्यादि चतुष्टय और युगपत् (एक साथ) स्व-पर-द्रव्यादिचतुष्टय के द्वारा स्यात् नास्ति- अवक्तव्य ही है - यह स्यात् का अर्थ है- यह छठवाँ भंग है । स्यात् अस्ति-नास्ति अवक्तव्य ही है । स्यात् का क्या अर्थ है? कथंचित् -विवक्षितप्रकार से- क्रम से स्व-पर द्रव्यादि चतुष्टय और एक साथ स्व-पर द्रव्यादिचतुष्टय से स्यात् अस्ति-नास्ति- अवक्तव्य ही है - यह स्यात् का अर्थ है- यह सातवाँ भंग है ।
पहले 'पंचास्तिकाय संग्रह' नामक ग्रन्थ में 'स्यात् अस्ति' इत्यादि प्रमाण वाक्य द्वारा (गाथा १४ - टीका) प्रमाण सप्तभंगी का व्याख्यान किया था और यहाँ जो 'स्यात् अस्ति एव' - 'स्यात् है ही' इसप्रकार एवकार- 'ही' शब्द का ग्रहण किया है, वह नय सप्तभंगी को बताने के लिये किया है - यह भाव है । जैसे यह नय सप्तभंगी का विशेष कथन शुद्धात्म-द्रव्य में घटित कर दिखाया है, उसीप्रकार यथासंभव सभी पदार्थों में देखना चाहिये ॥१२५॥
इसप्रकार
- पूर्वोक्त प्रकार से
- पहली नमस्कार गाथा,
- द्रव्य-गुण-पर्याय कथनरूप से दूसरी,
- स्वसमय-परसमय प्रतिपादनरूप से तीसरी,
- द्रव्य के सत्ता आदि तीन लक्षणों की सूचनारूप से चौथी
- उसके बाद
- अवान्तर-सत्ता कथनरूप पहली,
- महासत्तारूप दूसरी, जैसे द्रव्य स्वभावसिद्ध है उसीप्रकार सत्तागुण भी स्वभावसिद्ध है-इस कथनरूप तीसरी,
- उत्पाद-व्यय-धौव्यरूप से भी सत्ता ही द्रव्य है -- इस कथनरूप चौथी
- तत्पश्चात् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य के लक्षण विवरण-परक तीन गाथाओं वाला तीसरा स्थल,
- उसके बाद द्रव्य-पर्याय और गुण-पर्याय के कथनरूप दो गाथाओं वाला चौथा स्थल,
- तदनन्तर
- द्रव्य के अस्तित्व की स्थापनारूप पहली,
- पृथक्त्व लक्षण और अतद्भाव नाम अन्यत्व लक्षण के कथनरूप दूसरी,
- संज्ञा-लक्षण-प्रयोजन आदि भेदरूप अतद्भाव के विवरणरूप तीसरी,
- उसे ही दृढ़ करने के लिये चौथी
- उसके बाद
- सत्ता और द्रव्य के गुण-गुणी कथनरूप पहली,
- गुण-पर्यायों का द्रव्य के साथ अभेद कथनरूप दूसरी
अब, इसके बाद वहाँ सामान्य ज्ञेयव्याख्यान नामक प्रथमाधिकार में ही प्रथम सामान्यद्रव्यनिर्णय अन्तराधिकार के बाद सामान्यभेदभावना नामक द्वितीय अन्तराधिकार में सामान्य भेदभावना की मुख्यता से ग्यारह गाथाओं तक व्याख्यान करते हैं। वहाँ क्रम से पाँच स्थल हैं।
- सर्वप्रथम वार्तिक व्याख्यान के अभिप्राय से सांख्य-एकान्तमत का निराकरण, अथवा शुद्ध-निश्चयनय से जैनमत ही है - इसप्रकार व्याख्यान की मुख्यता से [एसो त्ति णत्थि कोई] -इत्यादि एक गाथावाला पहला स्थल है ।
- उसके बाद मनुष्यादि पयायें निश्चयनय से कर्म के फल हैं, शुद्धात्मा का स्वरूप नहीं हैं -- इसप्रकार उसही अधिकारसूत्र के विवरण के लिये [कम्मं॑ णामसमक्खं] इत्यादि पाठक्रम से चार गाथाओं वाला दूसरा स्थल है;
- तत्पश्चात् रागादि परिणाम ही द्रव्य-कर्म के कारण होने से भावकर्म कहलाते हैं-- इसप्रकार परिणाम की मुख्यता से [आदा कम्ममलिमसो] इत्यादि दो गाथाओं वाला तीसरा स्थल है;
- उसके बाद कर्मफल चेतना, कर्मचेतना, ज्ञान चेतना - इसप्रकार त्रिविध चेतना के प्रतिपादन रूप [परिणमदि चेदणाए] इत्यादि तीन गाथाओं वाला चौथास्थल है और
- उसके बाद शुद्धात्म-भेदभावना का फल कहते हुये [कत्ताकरणं] इत्यादि एक गाथा द्वारा उपसंहार करते हैं- यह पाँचवाँ स्थल है ।