ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 120 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
तम्हा दु णत्थि कोई सहावसमवट्ठिदो त्ति संसारे । (120)
संसारो पुण किरिया संसरमाणस्स दव्वस्स ॥130॥
अर्थ:
इसलिये संसार में 'स्वभाव में अवस्थित' ऐसा कोई भी नहीं है और संसार तो संसरण करते हुये (घूमते हुये) द्रव्य की क्रिया है ।
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ विनश्वरत्वे कारणमुपन्यस्यति, अथवा प्रथमस्थलेऽ-धिकारसूत्रेण मनुष्यादिपर्यायाणां कर्मजनितत्वेन यद्विनश्वरत्वं सूचितं तदेव गाथात्रयेण विशेषेण व्याख्यातमिदानीं तस्योपसंहारमाह --
तम्हा दु णत्थि कोई सहावसमवट्ठिदो त्ति तस्मान्नास्ति कश्चित्स्व-भावसमवस्थित इति । यस्मात्पूर्वोक्तप्रकारेण मनुष्यादिपर्यायाणां विनश्वरत्वं व्याख्यातं तस्मादेव ज्ञायतेपरमानन्दैकलक्षणपरमचैतन्यचमत्कारपरिणतशुद्धात्मस्वभाववदवस्थितो नित्यः कोऽपि नास्ति । क्व ।संसारे निस्संसारशुद्धात्मनो विपरीते संसारे । संसारस्वरूपं कथयति — संसारो पुण किरिया संसारः पुनःक्रिया । निष्क्रियनिर्विकल्पशुद्धात्मपरिणतेर्विसदृशी मनुष्यादिविभावपर्यायपरिणतिरूपा क्रिया संसार-स्वरूपम् । सा च कस्य भवति । संसरमाणस्स जीवस्स विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावमुक्तात्मनो विलक्षणस्यसंसरतः परिभ्रमतः संसारिजीवस्येति । ततः स्थितं मनुष्यादिपर्यायात्मकः संसार एव विनश्वरत्वेकारणमिति ॥१२०॥
एवं शुद्धात्मनो भिन्नानां कर्मजनितमनुष्यादिपर्यायाणां विनश्वरत्वकथनमुख्यतया गाथाचतुष्टयेन द्वितीयस्थलं गतम् ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[तम्हा दु णत्थि कोई सहावसमवट्ठिदो त्ति] इसलिये कोई स्वभाव में समवस्थित नहीं है । जिसकारण पूर्वोक्तप्रकार से मनुष्यादि पर्यायों की नश्वरता का व्याख्यान किया है, उससे ही यह जाना जाता है कि परमानन्द एक लक्षण परमचैतन्य चमत्कारपरिणत शुद्धात्मस्वभाव के समान अवस्थित-नित्य- स्थायी कोई भी नहीं है । कोई भी स्थायी कहाँ नहीं है? [संसारे] संसार से रहित शुद्धात्मा से विपरीत संसार में कोई भी स्थायी नहीं है । संसार का स्वरूप कहते हैं? [संसारो पुण किरिया] और संसार क्रिया है । क्रिया रहित विकल्प रहित शुद्धात्मा की परिणति से विपरीत मनुष्यादि विभाव पर्याय परिणतिरूप क्रिया संसार का स्वरूप है । और वह क्रिया किसके होती है? [संसरमाणस्स जीवस्स] विशुद्ध - ज्ञान-दर्शन स्वभावी मुक्तात्मा से विपरीत घूमते हुये संसारीजीव के वह क्रिया होती है ।
इससे सिद्ध हुआ कि मनुष्यादिपर्यायस्वरूप संसार ही नश्वरता-विनाशीपना में कारण है ॥१३०॥