ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 121 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
आदा कम्ममलिमसो परिणामं लहदि कम्मसंजुत्तं । (121)
तत्तो सिलिसदि कम्मं तम्हा कम्मं तु परिणामो ॥131॥
अर्थ:
कर्म से मलिन आत्मा कर्म संयुक्त परिणाम को प्राप्त करता है, उससे कर्म का बन्ध होता है; इसलिये ये परिणाम ही कर्म हैं ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ परिणामात्मके संसारे कुत: पुद्गलश्लेषो येन तस्य मनुष्यादिपर्यायात्मकत्वमित्यत्र समाधानमुपवर्णयति -
यो हि नाम संसारनामायमात्मनस्तथाविध: परिणाम: स एव द्रव्यकर्मश्लेषहेतु: । अथ तथाविद्यपरिणामस्याति को हेतु:, द्रव्यकर्म हेतु: तस्य, द्रव्यकर्मसंयुक्तत्वेनेवोपलम्भात् ।
एवं सतीतरेतराश्रयदोष: । न हि; अनादिप्रसिद्धद्रव्यकर्माभिसंबद्धस्यात्मन: प्राक्तन-द्रव्यकर्मणस्तत्र हेतुत्वेनोपादानात् ।
एवं कार्यकारणभूतनवपुराणद्रव्यकर्मत्वादात्मनस्तथाविधपरिणामो द्रव्यकर्मैव । तथात्मा चात्मपरिणामकर्तृत्वाद्द्रव्यकर्मकर्ताप्युचारात् ॥१२१॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
संसार नामक जो यह आत्मा का तथाविध (उस प्रकार का) परिणाम है वही द्रव्यकर्म के चिपकने का हेतु है । अब, उस प्रकार के परिणाम का हेतु कौन है? इसके उत्तर में कहते हैं कि - द्रव्यकर्म उसका हेतु है, क्योंकि द्रव्यकर्म की संयुक्तता से ही वह देखा जाता है ।
शंका - ऐसा होने से इतरेतराश्रयदोष आयेगा !
समाधान - नहीं आयेगा; क्योंकि अनादिसिद्ध द्रव्यकर्म के साथ संबद्ध ऐसे आत्मा का जो पूर्व का द्रव्यकर्म है उसका वहाँ हेतुरूप से ग्रहण (स्वीकार) किया गया है ।
इस प्रकार नवीन द्रव्यकर्म जिसका कार्यभूत है और पुराना द्रव्यकर्म जिसका कारणभूत है, ऐसा आत्मा का तथाविध परिणाम होने से, वह उपचार से द्रव्यकर्म ही है, और आत्मा भी अपने परिणाम का कर्त्ता होने से द्रव्यकर्म का कर्त्ता भी उपचार से है ॥१२१॥