ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 122 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
परिणामो सयमादा सा पुण किरिय त्ति होदि जीवमया । (122)
किरिया कम्म त्ति मदा तम्हा कम्मस्स ण दु कत्ता ॥132॥
अर्थ:
परिणाम स्वयं आत्मा है और वह क्रिया-परिणाम जीवमय है, क्रिया कर्म मानी गई है; इसलिये कर्म (द्रव्यकर्म) का कर्ता आत्मा नहीं है ।
तात्पर्य-वृत्ति:
अथात्मा निश्चयेन स्वकीयपरिणामस्यैव कर्ता, न च द्रव्यकर्मण इति प्रतिपादयति । अथवा द्वितीयपातनिका – शुद्धपारिणामिकपरमभावग्राहकेण शुद्धनयेन यथैवाकर्ता तथैवाशुद्धनयेनापिसांख्येन यदुक्तं तन्निषेधार्थमात्मनो बन्धमोक्षसिद्धयर्थं कथंचित्परिणामित्वं व्यवस्थापयतीति
पातनिकाद्वयं मनसि संप्रधार्य सूत्रमिदं निरूपयति --
परिणामो सयमादा परिणामः स्वयमात्मा, आत्म-परिणामस्तावदात्मैव । कस्मात् । परिणामपरिणामिनोस्तन्मयत्वात् । सा पुण किरिय त्ति होदि सा पुनःक्रियेति भवति, स च परिणामः क्रिया परिणतिरिति भवति । कथंभूता । जीवमया जीवेननिर्वृत्तत्वाज्जीवमयी । किरिया कम्म त्ति मदा जीवेन स्वतन्त्रेण स्वाधीनेन शुद्धाशुद्धोपादानकारणभूतेनप्राप्यत्वात्सा क्रिया कर्मेति मता संमता । कर्मशब्देनात्र यदेव चिद्रूपं जीवादभिन्नं भावकर्मसंज्ञंनिश्चयकर्म तदेव ग्राह्यम् । तस्यैव कर्ता जीवः । तम्हा कम्मस्स ण दु कत्ता तस्माद्द्रव्यकर्मणो न कर्तेति । अत्रैतदायाति --
यद्यपि कथंचित् परिणामित्वे सति जीवस्य कर्तृत्वं जातं तथापि निश्चयेन स्वकीय-परिणामानामेव कर्ता, पुद्गलकर्मणां व्यवहारेणेति । तत्र तु यदा शुद्धोपादानकारणरूपेण शुद्धोपयोगेन परिणमति तदा मोक्षं साधयति, अशुद्धोपादानकारणेन तु बन्धमिति । पुद्गलोऽपि जीववन्निश्चयेनस्वकीयपरिणामानामेव कर्ता, जीवपरिणामानां व्यवहारेणेति ॥१२२॥
एवं रागादिपरिणामाः कर्मबन्ध-कारणं, तेषामेव कर्ता जीव इतिकथनमुख्यतया गाथाद्वयेन तृतीयस्थलं गतम् ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[परिणामो सयमादा] परिणाम स्वयं आत्मा है, आत्मा का परिणाम आत्मा ही है । आत्मा का परिणाम आत्मा क्यों है? परिणाम और परिणामी (द्रव्य) के तन्मयता (उस रूपता) होने से आत्मा का परिणाम आत्मा है । [सा पुण किरिय त्ति होदि] और वह परिणाम क्रिया-परिणति है । वह क्रिया कैसी है? [जीवमया] जीव से रचित होने के कारण जीवमयी है । [किरिया कम्म त्ति मदा] स्वतंत्र स्वाधीन शुद्धाशुद्ध उपादान कारणभूत जीव द्वारा प्राप्य होने से वह क्रिया कर्म है-ऐसा स्वीकार किया गया है । कर्म शब्द से यहाँ जो चैतन्यरूप जीव से अभिन्न भावकर्म नामक निश्चय कर्म है, वही ग्रहण करना चाहिये । जीव उसका ही कर्ता है । [तम्हा कम्मस्स ण दु कत्ता] इसलिये द्रव्य कर्म का कर्ता नहीं है ।
यहाँ यह निश्चय हुआ - यद्यपि कथंचित् परिणामी होने से जीव का कर्तापन सिद्ध है, तथापि निश्चय से अपने परिणामों का ही कर्ता है, पुद्गल कर्मों का कर्ता व्यवहार से है । वहाँ जब शुद्ध उपादानकारण रूप शुद्धोपयोग से परिणत होता है, तब मोक्ष को सिद्ध करता है-प्राप्त करता है और जब अशुद्ध उपादानकारण रूप से परिणमित होता है, तब बंध को प्राप्त करता है । पुद्गल भी जीव के समान निश्चय से अपने परिणामों का ही कर्ता है व्यवहार से जीव परिणामों का कर्ता है ॥१३२॥