ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 136 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
लोगालोगेसु णभो धम्माधम्मेहिं आददो लोगो । (136)
सेसे पडुच्च कालो जीवा पुण पोग्गला सेसा ॥147॥
अर्थ:
आकाश लोकालोक में है, लोक धर्म और अधर्म से व्याप्त है, शेष दो द्रव्यों का आश्रय लेकर काल है, और वे शेष दो द्रव्य जीव और पुद्गल हैं ।
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ द्रव्याणांलोकाकाशेऽवस्थानमाख्याति --
लोगालोगेसु णभो लोकालोकयोरधिकरणभूतयोर्णभ आकाशं तिष्ठति । धम्माधम्मेहिं आददो लोगो धर्माधर्मास्तिकायाभ्यामाततो व्याप्तो भृतो लोकः । किं कृत्वा । सेसे पडुच्चशेषौ जीवपुद्गलौ प्रतीत्याश्रित्य । अयमत्रार्थः -- जीवपुद्गलौ तावल्लोके तिष्ठतस्तयोर्गतिस्थित्योःकारणभूतौ धर्माधर्मावपि लोके । कालो कालोऽपि शेषौ जीवपुद्गलौ प्रतीत्य लोके । क स्मादिति चेत् । जीवपुद्गलाभ्यां नवजीर्णपरिणत्या व्यज्यमानसमयघटिकादिपर्यायत्वात् । शेषशब्देन किं भण्यते । जीवापुण पोग्गला सेसा जीवाः पुद्गलाश्च पुनः शेषा भण्यन्त इति । अयमत्र भावः --
यथा सिद्धा भगवन्तोयद्यपि निश्चयेन लोकाकाशप्रमितशुद्धासंख्येयप्रदेशे केवलज्ञानादिगुणाधारभूते स्वकीयस्वकीयभावे तिष्ठन्ति तथापि व्यवहारेण मोक्षशिलायां तिष्ठन्तीति भण्यन्ते । तथा सर्वे पदार्था यद्यपि निश्चयेन स्वकीयस्वकीयस्वरूपे तिष्ठन्ति तथापि व्यवहारेण लोकाकाशे तिष्ठन्तीति । अत्र यद्यप्यनन्तजीव-द्रव्येभ्योऽनन्तगुणपुद्गलास्तिष्ठन्ति तथाप्येकदीपप्रकाशे बहुदीपप्रकाशवद्विशिष्टावगाहशक्तियोगेनासंख्येयप्रदेशेऽपि लोकेऽवस्थानं न विरुध्यते ॥१४७॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[लोगालोगेसु णभो] आधारभूत लोक और अलोक में आकाश है । [धम्माधम्मेहिं आददो लोगो] लोक धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय से व्याप्त-भरा हुआ है । लोक क्या करने वाले उनसे भरा हुआ है । [सेसे पडुच्च] शेष जीव और पुद्गल का आश्रय लेकर रहने वाले धर्म और अधर्म से यह लोक भरा हुआ है । यहाँ अर्थ यह है कि जीव और पुद्गल लोक में रहते हैं उन दोनों की गति-स्थिति में कारणभूत धर्म और अधर्म भी लोक में रहते हैं । [कालो] काल भी शेष-जीव-पुद्गलों का आश्रय लेकर लोक में रहता है । वह जीव-पुद्गलों का आश्रय क्यों लेता है? नवीन और पुरानी पर्याय रूप से परिणमित जीव-पुद्गलों के द्वारा व्यक्त होने वाली समय, घटिका (घड़ी) आदि पर्याय रूप होने के कारण वह शेष जीव-पुद्गलों का आश्रय लेकर लोक में रहता है । शेष शब्द से क्या कहा गया है? [जीवा पुण पुग्गला सेसा] जीव और पुद्गल शेष (शब्द से) कहे गये हैं ।
यहाँ भाव यह है- जैसे सिद्ध भगवान यद्यपि निश्चय से लोकाकाश प्रमाण अपने शुद्ध असंख्यात प्रदेशों में, केवलज्ञानादि गुणों के आधारभूत अपने-अपने भावों में रहते हैं, तथापि व्यवहार से मोक्षशिला (सिद्धशिला) में रहते है- ऐसा कहते हैं । उसीप्रकार सभी पदार्थ यद्यपि निश्चय से अपने-अपने स्वरूप में रहते हैं तथापि व्यवहार से लोकाकाश में रहते हैं । यहाँ यद्यपि अनन्तजीव द्रव्यों से अनन्तगुणे पुद्गल हैं फिर भी एक दीपक के प्रकाश में अनेक दीपकों के प्रकाश के समान विशिष्ट अवगाहनशक्ति के योग से असंख्यातप्रदेशी लोक में भी (इन सभी का) अवस्थान विरोध को प्राप्त नहीं होता है ॥१४७॥