ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 141 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
एक्को व दुगे बहुगा संखातीदा तदो अणंता य । (141)
दव्वाणं च पदेसा संति हि समय त्ति कालस्स ॥152॥
अर्थ:
[द्रव्याणां च] द्रव्यों के [एक:] एक, [द्वौ] दो, [बहव:] बहुत से, [संख्यातीता:] असंख्य, [वा] अथवा [ततः अनन्ता: च] अनन्त [प्रदेशा:] प्रदेश [सन्ति हि] हैं । [कालस्य] काल से [समया: इति] समय हैं ॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ तिर्यगूर्ध्वप्रचयावावेदयति -
प्रदेशप्रचयो हि तिर्यक्प्रचय: समयविशिष्टवृत्तिप्रचयस्तदूर्ध्वप्रचय: ।
तत्राकाशस्यावस्थितानंतप्रदेशत्वाद्धर्माधर्मयोरवस्थितासंख्येयप्रदेशत्वाज्जीवस्यानवस्थितासंख्येयप्रदेशत्वात् पुद्गलस्य द्रव्येणानेकप्रदेशत्वशक्तियुक्तैकप्रदेशत्वात्पर्यायेण द्विबहुप्रदेशत्वाच्चास्ति तिर्यक्प्रचय: । न पुन: कालस्य, शक्त्या व्यक्त्या चैकप्रदेशत्वात् ।
ऊर्ध्वप्रचयस्तु त्रिकोटिस्पर्शित्वेन सांशत्वाद्द्रव्यवृत्ते: सर्वद्रव्याणामनिवारित एव ।
अयं तु विशेष: समयविशिष्टवृत्तिप्रचय: शेषद्रव्याणामूर्ध्वप्रचय:, समयप्रचय: एव कालस्योर्ध्वप्रचय: । शेषद्रव्याणां वृत्तेर्हि समयादर्थान्तरभूतत्वादस्ति समयविशिष्टत्वम् । कालवृत्तेस्तु स्वत: समयभूतत्वात्तन्नास्ति ॥१४१॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
प्रदेशों का प्रचय (समूह) तिर्यक्-प्रचय और समय-विशिष्ट वृत्तियों का समूह ऊर्ध्वप्रचय है ।
वहाँ आकाश अवस्थित (निश्चल, स्थिर) अनन्त प्रदेशी होने से धर्म तथा अधर्म अवस्थित असंख्य प्रदेशी होने से जीव अनवस्थित (अस्थिर) असंख्यप्रदेशी है और पुद्गल द्रव्यत: अनेक प्रदेशीपने की शक्ति से युक्त एकप्रदेशवाला है तथा पर्याय से दो अथवा बहुत (संख्यात, असंख्यात और अनन्त) प्रदेशवाला है, इसलिये उनके तिर्यक्-प्रचय है; परन्तु काल के (तिर्यक्प्रचय) नहीं है, क्योंकि वह शक्ति तथा व्यक्ति (की अपेक्षा) से एक प्रदेशवाला है ।
ऊर्ध्व-प्रचय तो सर्व द्रव्यों के अनिवार्य ही है, क्योंकि द्रव्य की वृत्ति तीन कोटियों को (भूत, वर्तमान, और भविष्य ऐसे तीनों कालों को) स्पर्श करती है, इसलिये अंशों से युक्त है । परन्तु इतना अन्तर है कि समय-विशिष्ट वृत्तियों का प्रचय वह (काल को छोड़कर) शेष द्रव्यों का ऊर्ध्व-प्रचय है, और समयों का प्रचय वही कालद्रव्य का ऊर्ध्व-प्रचय है; क्योंकि शेष द्रव्यों की वृत्ति समय से अर्थान्तरभूत (अन्य) होने से वह (वृत्ति) समय विशिष्ट है, और कालद्रव्य की वृत्ति तो स्वत: समयभूत है, इसलिये वह समय-विशिष्ट नहीं है ॥१४१॥