ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 142 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
उप्पादो पद्धंसो विज्जदि जदि जस्स एगसमयम्हि । (142)
समयस्स सो वि समओ सभावसमवट्ठिदो हवदि ॥153॥
अर्थ:
[यदि यस्य समयस्य] यदि काल का [एक समये] एक समय में [उत्पाद: प्रध्वंस:] उत्पाद और विनाश [विद्यते] पाया जाता है, [सः अपि समय:] तो वह भी काल [स्वभावसमवस्थित:] स्वभाव में अवस्थित अर्थात् ध्रुव [भवति] होता है ॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ कालपदार्थोर्ध्वप्रचयनिरन्वयत्वमुपहन्ति -
समयो हि समयपदार्थस्य वृत्त्यंश: । तस्मिन् कस्याप्यवश्यमुत्पादप्रध्वंसौ संभवत:, परमाणोर्व्यतिपातोत्पद्यमानत्वेन कारणपूर्वत्वात् । तौ यदि वृत्त्यंशस्यैव, किं यौगपद्येन किं क्रमेण । यौगपद्येन चेत्, नास्ति यौगपद्यं, सममेकस्य विरुद्धधर्मयोरनवतारात् । क्रमेण चेत्, नास्ति क्रम:, वृत्त्यंशस्य सूक्ष्मत्वेन विभागाभावात् । ततो वृत्तिमान् कोऽप्यवश्यमनुसर्तव्य: । स च समयपदार्थ एव । तस्य खल्वेकस्मिन्नपि वृत्त्यंशे समुत्पादप्रध्वंसौ संभवत: । यो हि यस्य वृत्तिमतो यस्मिन् वृत्त्यंशे तद्वृत्त्यंशविशिष्टत्वेन नोत्पाद:, स एव तस्यैव वृत्तिमतस्तस्मिन्नेव वृत्यंशे पूर्ववृत्त्यंशविशिष्टत्वेन प्रध्वंस: ।
यद्येवमुत्पादव्ययावेकस्मिन्नपि वृत्त्यंशे संभवत: समयपदार्थस्य कथं नाम निरन्वयत्वं, यत: पूर्वोत्तरवृत्त्यंशविशिष्टत्वाभ्यां युगपदुपात्तप्रध्वंसोत्पादस्यापि स्वभावेनाप्रध्वस्ता-नुत्पन्नत्वादवस्थितत्वमेव न भवेत् ।
एवमेकस्मिन् वृत्त्यंशे समयपदार्थस्योत्पादव्ययध्रौव्यवत्त्वं सिद्धम् ॥१४२॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
समय कालपदार्थ का वृत्यंश है; उस वृत्यंश में किसी के भी अवश्य उत्पाद तथा विनाश संभवित हैं; क्योंकि परमाणु के अतिक्रमण के द्वारा (समयरूपी वृत्यंश) उत्पन्न होता है, इसलिये वह कारणपूर्वक है । (परमाणु के द्वारा एक आकाशप्रदेश का मंदगति से उल्लंघन करना वह कारण है और समयरूपी वृत्यंश उस कारण का कार्य है, इसलिये उसमें किसी पदार्थ के उत्पाद तथा विनाश होते होना चाहिये ।)
(‘किसी पदार्थ के उत्पाद-विनाश होने की क्या आवश्यकता है? उसके स्थान पर उस वृत्यंश को ही उत्पाद-विनाश होते मान लें तो क्या हानि है?’ इस तर्क का समाधान करते हैं—)
यदि उत्पाद और विनाश वृत्यंश के ही माने जायें तो, (प्रश्न होता है कि—) (१) वे (उत्पाद तथा विनाश) युगपद् हैं या (२) क्रमश: ?
- यदि ‘युगपत्’ कहा जाये तो युगपत्पना घटित नहीं होता, क्योंकि एक ही समय एक के दो विरोधी धर्म नहीं होते । (एक ही समय एक वृत्यंश के प्रकाश और अन्धकार की भाँति उत्पाद और विनाश—दो विरुद्ध धर्म नहीं होते ।)
- यदि ‘क्रमश: है’ ऐसा कहा जाये तो, क्रम नहीं बनता, (अर्थात् क्रम भी घटता नहीं) क्योंकि वृत्यंश के सूक्ष्म होने से उसमें विभाग का अभाव है ।
यदि इस प्रकार उत्पाद और विनाश एक वृत्यंश में भी संभवित है, तो कालपदार्थ निरन्वय कैसे हो सकता है, कि जिससे पूर्व और पश्चात् वृत्यंश की अपेक्षा से युगपत् विनाश और उत्पाद को प्राप्त होता हुआ भी स्वभाव से अविनष्ट और अनुत्पन्न होने से वह (काल पदार्थ) अवस्थित न हो? (काल पदार्थ के एक वृत्यंश में भी उत्पाद और विनाश युगपत् होते हैं इसलिये वह निरन्वय अर्थात् खंडित नहीं है, इसलिये स्वभावत: अवश्य ध्रुव है ।)
इस प्रकार एक वृत्यंश में कालपदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यवाला है, यह सिद्ध हुआ ॥१४२॥