ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 149 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
पाणाबाधं जीवो मोहपदेसेहिं कुणदि जीवाणं । (149)
जदि सो हवदि हि बंधो णाणावरणादिकम्मेहिं ॥161॥
अर्थ:
[यदि] यदि [जीव:] जीव [मोहप्रद्वेषाभ्यां] मोह और प्रद्वेष के द्वारा [जीवयो:] जीवों के (स्वजीव के तथा परजीव के) [प्राणाबाधं करोति] प्राणों को बाधा पहुँचाते हैं, [सः हि] तो पूर्वकथित [ज्ञानावरणादिकर्मभि: बंध:] ज्ञानावरणादिक कर्मों के द्वारा बंध [भवति] होता है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ प्राणानां पौद्गलिककर्मकारणत्वमुन्मीलयति -
प्राणैर्हि तावज्जीव: कर्मफलमुपभुंक्ते, तदुपभुञ्जानो मोहप्रद्वेषावाप्नोति; ताभ्यां स्वजीव-परजीवयो: प्राणाबाधं विदधाति । तदा कदाचित्परस्य द्रव्यप्राणानाबाध्य कदाचिदनाबाध्य स्वस्य भावप्राणानुपरक्तत्वेन बाधमानो ज्ञानावरणादीनि कर्माणि बध्नाति । एवं प्राणा: पौद्गलिककर्मकारणतामुपयान्ति ॥१४९॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
प्रथम तो प्राणों से जीव कर्मफल को भोगता है; उसे भोगता हुआ मोह तथा प्रद्वेष को प्राप्त होता है; मोह तथा द्वेष से स्वजीव तथा परजीव के प्राणों को बाधा पहुँचाता है । वहाँ कदाचित् दूसरे के द्रव्य प्राणों को बाधा पहुँचाकर और कदाचित् बाधा न पहुँचाकर, अपने भावप्राणों को तो उपरक्तता से (अवश्य ही) बाधा पहुँचाता हुआ जीव ज्ञानावरणादि कर्मों को बाँधता है । इस प्रकार प्राण पौद्गलिक कर्मों के कारणपने को प्राप्त होते हैं ॥१४९॥