ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 153 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
णरणारयतिरियसुरा संठाणादीहिं अण्णहा जादा । (153)
पज्जाया जीवाणं उदयादिहिं णामकम्मस्स ॥165॥
अर्थ:
[नरनारकतिर्यक्सूरा:] मनुष्य, नारक, तिर्यंच और देव, [नामकर्मण: उदयादिभि:] नामकर्म के उदयादिक के कारण [जीवानां पर्याया:] जीवों की पर्यायें हैं,—[संस्थानादिभि:] जो कि संस्थानादि के द्वारा [अन्यथा जाता:] अन्य-अन्य प्रकार की होती हैं ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ पर्यायव्यक्तीर्दर्शयति -
नारकस्तिर्यङ्मनुष्यो देव इति किल पर्याया जीवानाम् । ते खलु नामकर्मपुद्गलविपाक-करणत्वेनानेकद्रव्यसंयोगात्मकत्वात् कुकूलाङ्गारादिपर्याया जातवेदस: क्षोदखिल्वसंस्थानादिभिरिव संस्थानादिभिरन्यथैव भूता भवन्ति ॥१५३॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव—जीवों की पर्यायें हैं । वे नामकर्मरूप पुद्गल के विपाक के कारण अनेक द्रव्यों की संयोगात्मक हैं; इसलिये जैसे तृष की अग्नि और अंगार इत्यादि अग्नि की पर्यायें चूरा और डली इत्यादि आकारों से अन्य-अन्य प्रकार की होती हैं, उसी प्रकार जीव की वे नारकादि पर्यायें संस्थानादि के द्वारा अन्य-अन्य प्रकार की ही होती हैं ॥१५३॥