ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 159 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
असुहोवओगरहिदो सुहोवजुत्तो ण अण्णदवियम्हि । (159)
होज्जं मज्झत्थोऽहं णाणप्पगमप्पगं झाए ॥171॥
अर्थ:
[अन्यद्रव्ये] अन्य द्रव्य में [मध्यस्थ:] मध्यस्थ [भवन्] होता हुआ [अहम्] मैं [अशुभोपयोगरहित:] अशुभोपयोग रहित होता हुआ तथा [शुभोपयुक्त: न] शुभोपयुक्त नहीं होता हुआ [ज्ञानात्मकम्] ज्ञानात्मक [आत्मकं] आत्मा को [ध्यायामि] ध्याता हूँ ।
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ शुभाशुभरहितशुद्धोपयोगं प्ररूपयति --
असुहोवओगरहिदो अशुभोपयोगरहितोभवामि । स कः अहं अहं कर्ता । पुनरपि कथंभूतः । सुहोवजुत्तो ण शुभोपयोगयुक्तः परिणतो न भवामि ।क्व विषयेऽसौ शुभोपयोगः । अण्णदवियम्हि निजपरमात्मद्रव्यादन्यद्रव्ये । तर्हि कथंभूतो भवामि । होज्जं मज्झत्थो जीवितमरणलाभालाभसुखदुःखशत्रुमित्रनिन्दाप्रशंसादिविषये मध्यस्थो भवामि । इत्थंभूतःसन् किं करोमि । णाणप्पगमप्पगं झाए ज्ञानात्मकमात्मानं ध्यायामि । ज्ञानेन निर्वृत्तं ज्ञानात्मकं केवलज्ञानान्तर्भूतानन्तगुणात्मकं निजात्मानं शुद्धध्यानप्रतिपक्षभूतसमस्तमनोरथरूपचिन्ताजालत्यागेन ध्यायामीति शुद्धोपयोगलक्षणं ज्ञातव्यम् ॥१५९॥
एवं शुभाशुभशुद्धोपयोगविवरणरूपेण तृतीयस्थलेगाथात्रयं गतम् ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[असुहोवओगरहिदो] अशुभोपयोग से रहित होता हूँ । अशुभोपयोग से रहित वह कौन है ? [अहं] कर्तारूप मैं अशुभोपयोग से रहित हूँ । और भी मैं कैसा होता हूँ ? [सुहोवजुत्तो ण] शुभोपयोग में युक्त--शुभोपयोगरूप से परिणत नहीं होता हूँ । किसमें परिणत नहीं होता हूँ ? उस शुभोपयोगरूप विषय में परिणत नहीं होता हूँ । [अण्णदवियम्हि] निज परमात्म-द्रव्य से भिन्न अन्य द्रव्य में (परिणत नहीं होता हूँ) । तो मैं कैसा होता हूँ ? [होज्जं मज्झत्थो] जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, शत्रु-मित्र, निन्दा- प्रशंसा आदि विषय में मध्यस्थ होता हूँ । ऐसा होता हुआ क्या करता हूँ ? [णाणप्पगमप्पगं झाए] ज्ञानात्मक आत्मा का ध्यान करता हूँ । ज्ञान से रचित ज्ञानात्मक--ज्ञानस्वरूप--केवलज्ञान में गर्भित अनन्तगुण स्वरूपी निजात्मा का शुद्ध ध्यान के विरोधी सम्पूर्ण इच्छारूपी चिन्ताओं के जाल (समूह) के त्याग पूर्वक ध्यान करता हूँ--इसप्रकार शुद्धोपयोग का लक्षण जानना चाहिये ॥१७१॥