ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 160 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी ण कारणं तेसिं । (160)
कत्ता ण ण कारयिदा अणुमंता णेव कत्तीणं ॥172॥
अर्थ:
[अहं न देह:] मैं न देह हूँ [न मन:] न मन हूँ, [च एव] और [न वाणी] न वाणी हूँ; [तेषां कारणं न] उनका कारण नहीं हूँ [कर्ता न] कर्ता नहीं हूँ [कारयिता न] कराने वाला नहीं हूँ; [कर्तृणां अनुमन्ता न एव] (और) कर्ता का अनुमोदक नहीं हूँ ।
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ देहमनोवचनविषयेऽत्यन्तमाध्यस्थ्यमुद्योतयति--
णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी नाहं देहो न मनो न चैव वाणी । मनोवचनकायव्यापाररहितात्परमात्मद्रव्याद्भिन्नं यन्मनोवचनकायत्रयंनिश्चयनयेन तन्नाहं भवामि । ततः कारणात्तत्पक्षपातं मुक्त्वात्यन्तमध्यस्थोऽस्मि । ण कारणं तेसिं नकारणं तेषाम् । निर्विकारपरमाह्लादैकलक्षणसुखामृतपरिणतेर्यदुपादानकारणभूतमात्मद्रव्यं तद्विलक्षणोमनोवचनकायानामुपादानकारणभूतः पुद्गलपिण्डो न भवामि । ततः कारणात्तत्पक्षपातं मुक्त्वात्यन्त-मध्यस्थोऽस्मि । कत्ता ण हि कारयिदा अणुमंता णेव कत्तीणं कर्ता न हि कारयिता अनुमन्ता नैव कर्तॄणाम् । स्वशुद्धात्मभावनाविषये यत्कृतकारितानुमतस्वरूपं तद्विलक्षणं यन्मनोवचनकायविषये कृतकारितानु-मतस्वरूपं तन्नाहं भवामि । ततः कारणात्तत्पक्षपातं मुक्त्वात्यन्तमध्यस्थोऽस्मीति तात्पर्यम् ॥१६०॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी] मैं शरीर नहीं हूँ, मन नहीं हूँ और वाणी नहीं ही हूँ । मन, वचन, शरीर के व्यापार से रहित परमात्म-द्रव्य से भिन्न जो मन, वचन, शरीर -- वे तीनों निश्चयनय से मैं नहीं हूँ । इस प्रकार उनके प्रति पक्षपात को छोड़कर अत्यन्त मध्यस्थ हूँ । [ण कारण तेसिं] उनका मैं कारण नहीं हूँ । विकार रहित परमाह्लाद एक लक्षण सुखरूप अमृतमयी परिणति का जो उपादान कारणभूत आत्म-द्रव्य है, उससे विलक्षण मन, वचन काय के उपादान कारण-भूत पुद्गल पिण्ड-रूप मैं नहीं हूँ । इस कारण उनके प्रति पक्षपात को छोड़कर मैं अत्यन्त मध्यस्थ हूँ । [कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता णेव कत्तीणं] कर्ता नहीं हूँ, कारयिता (करानेवाला) नहीं हूँ, करनेवाले का अनुमोदक (अनुमोदना करने वाला) नहीं ही हूँ । निज शुद्धात्मा की भावना के विषय में जो कृत-कारित-अनुमोदना का स्वरूप है, उससे विलक्षण जो मन-वचन-शरीर के विषय में कृत-कारित-अनुमोदना का स्वरूप है, उन रूप मैं नहीं हूँ । इसकारण उनके प्रति पक्षपात को छोड़कर अत्यन्त मध्यस्थ हूँ -- ऐसा तात्पर्य है ॥१७२॥