ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 169 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
कम्मत्तणपाओग्गा खंधा जीवस्स परिणइं पप्पा । (169)
गच्छंति कम्मभावं ण हि ते जीवेण परिणमिदा ॥181॥
अर्थ:
[कर्मत्वप्रायोग्या: स्कंधा:] कर्मत्व के योग्य स्कंध [जीवस्यपरिणतिं प्राप्य] जीव की परिणति को प्राप्त करके [कर्मभावं गच्छन्ति] कर्मभाव को प्राप्त होते हैं; [न हि ते जीवेन परिणमिता:] जीव उनको नहीं परिणमाता ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथात्मन: पुद्गलपिण्डानां कर्मत्व-कर्तृत्वाभावमवधारयति -
यतो हि तुल्यक्षेत्रावगाढजीवपरिणाममात्रं बहिरङ्गसाधनमाश्रित्य जीवं परिणमयितार-मन्तरेणापि कर्मत्वपरिणमनशक्तियोगिन: पुद्गलस्कन्धा: स्वयमेव कर्मभावेन परिणमन्ति । ततोऽवधार्यते न पुद्गलपिण्डानां कर्मत्वकर्ता पुरुषोऽस्ति ॥१६९॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
कर्मरूप परिणमित होने की शक्तिवाले पुद्गलस्कंध तुल्य (समान) क्षेत्रावगाह जीव के परिणाममात्र का, जो कि बहिरंग साधन (बाह्यकारण) है, उसका आश्रय करके, जीव उनको परिणमाने वाला न होने पर भी, स्वयमेव कर्मभाव से परिणमित होते हैं । इससे निश्चित होता है कि पुद्गलपिण्डों को कर्मरूप करने वाला आत्मा नहीं है ।