ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 170 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
ते ते कम्मत्तगदा पोग्गलकाया पुणो वि जीवस्स । (170)
संजायंते देहा देहंतरसंकमं पप्पा ॥182॥
अर्थ:
[कर्मत्वगता:] कर्मरूप परिणत [ते ते] वे-वे [पुद्गलकाया:] पुद्गल पिण्ड [देहान्तर संक्रमं प्राप्य] देहान्तररूप परिवर्तन को प्राप्त करके [पुन: अपि] पुन:-पुन: [जीवस्य] जीव के [देहा:] शरीर [संजायन्ते] होते हैं ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथात्मन: कर्मत्वपरिणतपुद्गलद्रव्यात्मकशरीरकर्तृत्वाभावमवधारयति -
ये ये नामामी यस्य जीवस्य परिणामं निमित्तमात्रीकृत्य पुद्गलकाया: स्वयमेव कर्मत्वेन परिणमन्ति, अथ ते ते तस्य जीवस्यानादिसंतानप्रवृत्तशरीरान्तरसंक्रान्तिमाश्रित्य स्वयमेव च शरीराणि जायन्ते । अतोऽवधार्यते न कर्मत्वपरिणतपुद्गलद्रव्यात्मकशरीरकर्ता पुरुषो-ऽस्ति ॥१७०॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
जिस जीव के परिणाम को निमित्तमात्र करके जो-जो यह पुद्गल पिण्ड स्वयमेव कर्मरूप परिणत होते हैं, वे जीव के अनादि संततिरूप (प्रवाहरूप) प्रवर्तमान देहान्तर (भवांतर) रूप परिवर्तन का आश्रय लेकर (वे-वे पुद्गलपिण्ड) स्वयमेव शरीर (शरीररूप, शरीर के होने में निमित्तरूप) बनते हैं । इससे निश्चित होता है कि कर्मरूप परिणत पुद्गलद्रव्यात्मक शरीर का कर्ता आत्मा नहीं है ।