ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 183 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
जो णवि जाणदि एवं परमप्पाणं सहावमासेज्ज । (183)
कीरदि अज्झवसाणं अहं ममेदं ति मोहादो ॥195॥
अर्थ:
[यः] जो [एवं] इस प्रकार [स्वभावम् आसाद्य] स्वभाव को प्राप्त करके (जीव-पुद्गल के स्वभाव को निश्चित करके) [परम् आत्मानं] पर को और स्व को [न एव जानाति] नहीं जानता, [मोहात्] वह मोह से [अहम्] यह मैं हूँ [इदं मम] यह मेरा है [इति] इस प्रकार [अध्यवसानं] अध्यवसान [कुरुते] करता है ।
तात्पर्य-वृत्ति:
अथैतदेव भेदविज्ञानं प्रकारान्तरेण द्रढयति --
जो णवि जाणदि एव यः कर्ता नैव जानात्येवंपूर्वोक्तप्रकारेण । कम् । परं षड्जीवनिकायादिपरद्रव्यं, अप्पाणं निर्दोषिपरमात्मद्रव्यरूपं निजात्मानम् । किंकृत्वा । सहावमासेज्ज शुद्धोपयोगलक्षणनिजशुद्धस्वभावमाश्रित्य । कीरदि अज्झवसाणं स पुरुषःकरोत्यध्यवसानं परिणामम् । केन रूपेण । अहं ममेदं ति अहं ममेदमिति । ममकाराहंकारादिरहित-परमात्मभावनाच्युतो भूत्वा परद्रव्यं रागादिकमहमिति देहादिकं ममेतिरूपेण । कस्मात् । मोहादो मोहाधीनत्वादिति । ततः स्थितमेतत्स्वपरभेदविज्ञानबलेन स्वसंवेदनज्ञानी जीवः स्वद्रव्ये रतिं परद्रव्ये निवृत्तिं करोतीति ॥१८३॥
एवं भेदभावनाकथनमुख्यतया सूत्रद्वयेन पञ्चमस्थलं गतम् ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[जो णवि जाणदि एवं] जो कर्ता ऐसा पहले (१९४वीं गाथा में) कहे गये अनुसार जानता ही नहीं है । वह किसे नहीं जानता है ? [परं] छह जीव-निकाय (समूह) आदि पर द्रव्य को, [अप्पाणं] दोष-रहित परमात्म-द्रव्यरूप निज आत्मा को, जो नहीं जानता है । वह उन्हें क्या करके नहीं जानता है ? [सहावमासेज्ज] शुद्धोपयोग लक्षण निज शुद्ध स्वभाव का आश्रय लेकर, जो उन्हें नहीं जानता है । [कीरदि अज्झवसाणं] वह पुरुष अध्यवसान-रूप परिणाम करता है । वह ऐसा किसरूप से करता है ? [अहं ममेदं ति] यह मैं, यह मेरा -- इसप्रकार वह अध्यवसान परिणाम करता है । ममकार-अहंकार आदि रहित परमात्म-भावना से च्युत होकर, रागादि परद्रव्य मैं हूँ, शरीरादिक पर द्रव्य मेरे हैं -- इसप्रकार अध्यवसान करता है । वह ऐसा अध्यवसान क्यों करता है? [मोहादो] मोह के अधीन होने से, वह ऐसा अध्यवसान करता है ।
इससे यह निश्चित हुआ कि स्व-पर भेद-विज्ञान के बल से स्व-संवेदन ज्ञानी जीव, स्व-द्रव्य में रति-प्रवृत्ति और परद्रव्य में निवृत्ति करता है ॥१९५॥
इसप्रकार भेदभावना के कथन की मुख्यता से दो गाथाओं द्वारा पांचवां स्थल पूर्ण हुआ ।