ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 184 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
कुव्वं सभावमादा हवदि हि कत्ता सगस्स भावस्स । (184)
पोग्गलदव्वमयाणं ण दु कत्त्ता सव्वभावाणं ॥196॥
अर्थ:
[स्वभाव कुर्वन्] अपने भाव को करता हुआ [आत्मा] आत्मा [हि] वास्तव में [स्वकस्य भावस्य] अपने भाव का [कर्ता भवति] कर्ता है; [तु] परन्तु [पुद्गलद्रव्यमयानां सर्वभावानां] पुद्गलद्रव्यमय सर्व भावों का [कर्ता न] कर्ता नहीं है।
तात्पर्य-वृत्ति:
अथात्मनोनिश्चयेन रागादिस्वपरिणाम एव कर्म, न च द्रव्यकर्मेति प्ररूपयति --
कुव्वं सभावं कुर्वन्स्वभावम् । अत्रस्वभावशब्देन यद्यपि शुद्धनिश्चयेन शुद्धबुद्धैकस्वभावो भण्यते, तथापि कर्मबन्धप्रस्तावे रागादि-परिणामोऽप्यशुद्धनिश्चयेन स्वभावो भण्यते । तं स्वभावं कुर्वन् । स कः । आदा आत्मा । हवदि हि कत्ता कर्ता भवति हि स्फुटम् । कस्य । सगस्स भावस्स स्वकीयचिद्रूपस्वभावस्य रागादिपरिणामस्य । तदेव तस्य रागादिपरिणामरूपं निश्चयेन भावकर्म भण्यते । कस्मात् । तत्पायःपिण्डवत्तेनात्मना प्राप्यत्वाद्व्या-प्यत्वादिति । पोग्गलदव्वमयाणं ण दु कत्ता सव्वभावाणं चिद्रूपात्मनो विलक्षणानां पुद्गलद्रव्यमयानां न तु कर्तासर्वभावानां ज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मपर्यायाणामिति । ततो ज्ञायते जीवस्य रागादिस्वपरिणाम एव कर्म,तस्यैव स कर्तेति ॥१८४॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[कुव्वं सभावं] स्वभाव को करता हुआ । यहाँ स्वभाव शब्द से, शुद्ध निश्चयनय से, यद्यपि शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव कहा गया है; तथापि कर्मबन्ध के प्रसंग में, अशुद्ध-निश्चय से, रागादि परिणाम भी स्वभाव कहलाता है । उस स्वभाव को करता हुआ । उस स्वभाव को करता हुआ, वह कौन है ? [आदा] उस स्वभाव को करता हुआ आत्मा है । [हवदि हि कत्त्ता] अपने स्वभाव को करता हुआ आत्मा, वास्तव में कर्ता है । वह किसका कर्ता है ? [सगस्स भावस्स] अपने चैतन्यरूप स्वभाव--रागादि परिणाम का कर्ता है । निश्चय से वही उसका रागादि परिणामरूप भावकर्म कहलाता है । रागादि परिणाम उसके भाव-कर्म क्यों हैं? तपे हुये लोह-पिण्ड के सामान, उस आत्मा द्वारा प्राप्य--प्राप्त होने योग्य तथा व्याप्य--व्याप्त होने योग्य होने से, वे रागादि परिणाम आत्मा के भावकर्म हैं । [पोग्गलदव्वमयाणं ण दु कत्त्ता सव्वभावाणं] परन्तु वह चैतन्य-रूप आत्मा से विलक्षण, ज्ञानावरणादि-द्रव्य-कर्म-पर्याय-रूप पुद्गल-द्रव्यमयी सभी भावों का कर्ता नहीं है ।
इससे ज्ञात होता है कि रागादि निज परिणाम ही जीव के कर्म हैं, उसका ही वह कर्ता है ॥१९६॥