ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 191 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
णाहं होमि परेसिं ण मे परे संति णाणमहमेक्को । (191)
इदि जो झायदि झाणे सो अप्पाणं हवदि झादा ॥204॥
अर्थ:
‘[अहं परेषां न भवामि] मैं पर का नहीं हूँ [परे मे न सन्ति] पर मेरे नहीं हैं, [ज्ञानम् अहम् एक:] मैं एक ज्ञान हूँ,’ [इति यः ध्यायति] इस प्रकार जो ध्यान करता है, [सः ध्याता] वह ध्याता [ध्याने] ध्यानकाल में [आत्मा भवति] आत्मा होता है ।
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ शुद्ध-नयाच्छुद्धात्मलाभो भवतीति निश्चिनोति --
णाहं होमि परेसिं, ण मे परे संति नाहं भवामि परेषाम्, न मेपरे सन्तीति समस्तचेतनाचेतनपरद्रव्येषु स्वस्वामिसम्बन्धं मनोवचनकायैः कृतकारितानुमतैश्च स्वात्मानुभूतिलक्षणनिश्चयनयबलेन पूर्वमपहाय निराकृत्य । पश्चात् किं करोति । णाणमहमेक्को ज्ञानमहमेकः, सकलविमलकेवलज्ञानमेवाहं भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्मरहितत्वेनैकश्च । इदि जो झायदि इत्यनेन प्रकारेण योऽसौ ध्यायति चिन्तयति भावयति । क्क । झाणे निजशुद्धात्मध्याने स्थितः सो अप्पाणं हवदि झादा स आत्मानं भवति ध्याता । स चिदानन्दैकस्वभावपरमात्मानं ध्याता भवतीति । ततश्चपरमात्मध्यानात्तादृशमेव परमात्मानं लभते । तदपि कस्मात् । उपादानकारणसद्दशं कार्यमिति वचनात् ।ततो ज्ञायते शुद्धनयाच्छुद्धात्मलाभ इति ॥२०४॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[णाहं होमि परेसिं ण मे परे संति] मैं पर का नहीं हूँ और पर मेरा नहीं है -- इसप्रकार सम्पूर्ण चेतन-अचेतन पर द्रव्यों में, मन-वचन-शरीर और कृत-कारित-अनुमोदना द्वारा अपने आत्मा की अनुभूति लक्षण निश्चयनय के बल से, पहले स्व-स्वामी सम्बन्ध (ममत्व-परिणाम) को छोड़कर -- उसका निराकरण कर । पहले स्व-स्वामी सम्बन्ध छोड़कर बाद में क्या करता है ? [णाणमहमेक्को] मैं एक ज्ञान हूँ, 'परिपूर्ण निर्मल केवलज्ञान ही मैं हूँ और भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म से रहित होने के कारण मैं एक हूँ । [इदि जो झायदि] इसप्रकार से जो वह ध्यान करता है, चिन्तन करता है, भावना करता है । ऐसा ध्यान आदि वह कहाँ करता है? [झाणे] ऐसा वह, निज शुद्धात्मा के ध्यान में करता है, निज शुद्धात्मा के ध्यान में स्थित [सो अप्पाणं हवदि झादा] वह आत्मा का ध्याता होता है । वह, ज्ञानानन्द एक-स्वभावी परमात्मा का ध्यान करने वाला होता है । और इसलिये परमात्मा के ध्यान से उसके ही समान परमात्म दशा को प्राप्त करता है । उसके ध्यान से, वह वैसी दशा को क्यों प्राप्त करता है? 'उपादान कारण के समान कार्य होता है' -- ऐसा वचन होने से -- वह, उसके ध्यान से वैसी दशा को प्राप्त करता है ।
इससे ज्ञात होता है कि शुद्धनय से शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है ॥२०४॥
अब ध्रुवरूप होने से मैं शुद्धात्मा की ही भावना करता हूँ ऐसा विचार करते हैं -