ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 249 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
उवकुणदि जो वि णिच्चं चादुव्वण्णस्स समणसंघस्स (249) ।
कायविराधणरहिदं सो वि सरागप्पधाणो से ॥288॥
अर्थ:
[यः अपि ] जो कोई (श्रमण) [नित्यं ] सदा [कायविराधनरहितं ](छह) काय की विराधना से रहित [चातुर्वर्णस्य ] चार प्रकार के [श्रमणसंघस्य ] श्रमण संघ का [उपकरोति ] उपकार करता है, [सः अपि ] वह भी [सरागप्रधानः स्यात् ] राग की प्रधानतावाला है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
चातुर्वर्णस्य श्रमणसंघस्योपकारकरणवृत्ति: सा सर्वापि रागप्रधानत्वात् शुभोपयोगिनामेव भवति, न कदाचिदपि शुद्धोपयोगिनाम् ॥२४९॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, ऐसा निश्चित करते हैं कि सभी प्रवृत्तियाँ शुभोपयोगियों के ही होती हैं :-
संयम की प्रतिज्ञा की होने से छह-काय के विराधन से रहित जो कोई भी, शुद्धात्मपरिणति के रक्षण में निमित्तभूत ऐसी, चार प्रकार के श्रमणसंघ का उपकार करने की प्रवृत्ति है वह सभी रागप्रधानता के कारण शुभोपयोगियों के ही होती है, शुद्धोपयोगियों के कदापि नहीं ॥२४९॥