ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 250 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
जदि कुणदि कायखेदं वेज्जावच्चत्थमुज्जदो समणो । (250) ।
ण हवदि हवदि अगारी धम्मो सो सावयाणं से ॥289॥
अर्थ:
[यदि] यदि (श्रमण) [वैयावृत्यर्थम् उद्यत:] वैयावृत्ति के लिये उद्यमी वर्तता हुआ [कायखेदं] छह काय को पीड़ित [करोति] करता है तो वह [श्रमण: न भवति] श्रमण नहीं है, [अगारी भवति] गृहस्थ है; (क्योंकि) [सः] वह (छह काय की विराधना सहित वैयावृत्ति) [श्रावकाणां धर्म: स्यात्] श्रावकों का धर्म है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
यो हि परेषां शुद्धात्मवृत्तित्राणाभिप्रायेण वैयावृत्त्यप्रवृत्त्या स्वस्य संयमं विराधयति स गृहस्थधर्मानुप्रवेशात् श्रामण्यात् प्रच्यवते । अतो या काचन प्रवृत्ति: सा सर्वथा संयमाविरोधेनैव विधातव्या: । प्रवृत्तवपि संयमस्यैव साध्यत्वात् ॥२५०॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, प्रवृत्ति संयम की विरोधी होने का निषेध करते हैं (अर्थात् शुभोपयोगी श्रमण के संयम के साथ विरोधवाली प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिये - ऐसा कहते हैं ) :-
जो (श्रमण) दूसरे के शुद्धात्मपरिणति की रक्षा हो ऐसे अभिप्राय से वैयावृत्य की प्रवृत्ति करता हुआ अपने संयम की विराधना करता है, वह गृहस्थधर्म में प्रवेश कर रहा होने से श्रामण्य से च्युत होता है । इससे (ऐसा कहा है कि) जो भी प्रवृत्ति हो वह सर्वथा संयम के साथ विरोध न आये इस प्रकार ही करनी चाहिये, क्योंकि प्रवृत्ति में भी संयम ही साध्य है ।