ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 254 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
एसा पसत्थभूदा समणाणं वा पुणो घरत्थाणं । (254)
चरिया परे त्ति भणिदा ताएव परं लहदि सोक्खं ॥284॥
अर्थ:
[एषा] यह [प्रशस्तभूता] प्रशस्तभूत [चर्या] चर्या [श्रमणानां] श्रमणों के (गौण) होती है [वा गृहस्थानां पुन:] और गृहस्थों के तो [परा] मुख्य होती है, [इति भणिता] ऐसा (शास्त्रों में) कहा है; [तया एव] उसी से [परं सौख्य लभते] (परम्परा से) गृहस्थ परम सौख्य को प्राप्त होता है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
एवमेष शुद्धात्मानुरागयोगिप्रशस्तचर्यारूप उपवर्णित: शुभोपयोग: तदयं शुद्धात्मप्रका-शिकां समस्तविरतिमुपेयुषां कषायकणसद्भावात्प्रवर्तमान: शुद्धात्मवृत्तिविरुद्धरागसंगतत्वाद्-गौण: श्रमणानां, गृहिणां तु समस्तविरतेरभावेन शुद्धात्मप्रकाशनस्याभावात्कषायसद्भावात्प्र-वर्तमानोऽपि, स्फटिकसंपर्केणार्कतेजस इवैधसां, रागसंयोगेन शुद्धात्ममनोऽनुभवात्क्रमत: परमनिर्वाणसौख्यकारणत्वाच्च मुख्य: ॥२५४॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, इस प्रकार से कहे गये शुभोपयोग का गौण - मुख्य विभाग बतलाते हैं; (अर्थात् यह बतलाते हैं कि किसके शुभोपयोग गौण होता है और किसके मुख्य होता है ।) :-
इस प्रकार शुद्धात्मानुरागयुक्त प्रशस्तचर्यारूप जो यह शुभोपयोग वर्णित किया गया है वह यह शुभोपयोग, शुद्धात्मा की प्रकाशक सर्वविरति को प्राप्त श्रमणों के कषायकण के सद्भाव के कारण प्रवर्तित होता हुआ, गौण होता है, क्योंकि वह शुभोपयोग शुद्धात्मपरिणति से विरुद्ध ऐसे राग के साथ संबंधवान है; और वह शुभोपयोग गृहस्थों के तो, सर्वविरति के अभाव से शुद्धात्मप्रकाशन का अभाव होने से कषाय के सद्भाव के कारण प्रवर्तमान होता हुआ भी, मुख्य है, क्योंकि—जैसे ईंधन को स्फटिक के संपर्क से सूर्य के तेज का अनुभव होता है (और इसलिये वह क्रमश: जल उठता है) उसी प्रकार-गृहस्थ को राग के संयोग से शुद्धात्मा का अनुभव होता है, और (इसलिये वह शुभोपयोग) क्रमश: परम निर्वाणसौख्य का कारण होता है ।