ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 254 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
एसा पसत्थभूदा समणाणं वा पुणो घरत्थाणं । (254)
चरिया परे त्ति भणिदा ताएव परं लहदि सोक्खं ॥284॥
अर्थ:
[एषा] यह [प्रशस्तभूता] प्रशस्तभूत [चर्या] चर्या [श्रमणानां] श्रमणों के (गौण) होती है [वा गृहस्थानां पुन:] और गृहस्थों के तो [परा] मुख्य होती है, [इति भणिता] ऐसा (शास्त्रों में) कहा है; [तया एव] उसी से [परं सौख्य लभते] (परम्परा से) गृहस्थ परम सौख्य को प्राप्त होता है ।
तात्पर्य-वृत्ति:
अथायं वैयावृत्त्यादिलक्षण-शुभोपयोगस्तपोधनैर्गौणवृत्त्या श्रावकैस्तु मुख्यवृत्त्या कर्तव्य इत्याख्याति --
भणिदा भणिता कथिता । का कर्मतापन्ना । चरिया चर्या चारित्रमनुष्ठानम् । किंविशिष्टा । एसा एषा प्रत्यक्षीभूता । पुनश्च किंरूपा । पसत्थभूदा प्रशस्तभूता धर्मानुरागरूपा । केषां संबन्धिनी । समणाणं वा श्रमणानां वा पुणो घरत्थाणं गृहस्थानां वा पुनरियमेव चर्या परेत्ति परा सर्वोत्कृष्टेति । ताएव परं लहदि सोक्खं तयैव शुभोपयोगचर्ययापरंपरया मोक्षसुखं लभते गृहस्थ इति । तथाहि --
तपोधनाः शेषतपोधनानां वैयावृत्त्यं कुर्वाणाः सन्तःकायेन किमपि निरवद्यवैयावृत्त्यं कुर्वन्ति; वचनेन धर्मोपदेशं च । शेषमौषधान्नपानादिकंगृहस्थानामधीनं, तेन कारणेन वैयावृत्त्यरूपो धर्मो गृहस्थानां मुख्यः, तपोधनानां गौणः । द्वितीयं चकारणं — निर्विकारचिच्चमत्कारभावनाप्रतिपक्षभूतेन विषयकषायनिमित्तोत्पन्नेनार्तरौद्रदुर्ध्यानद्वयेनपरिणतानां गृहस्थानामात्माश्रितनिश्चयधर्मस्यावकाशो नास्ति, वैयावृत्त्यादिधर्मेण दुर्ध्यानवञ्चना भवति, तपोधनसंसर्गेण निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गोपदेशलाभो भवति । ततश्च परंपरया निर्वाणं लभन्तेइत्यभिप्रायः ॥२८४॥
एवं शुभोपयोगितपोधनानां शुभानुष्ठानकथनमुख्यतया गाथाष्टकेन द्वितीयस्थलं गतम् । इत ऊर्ध्वं गाथाषटकपर्यन्तं पात्रापात्रपरीक्षामुख्यत्वेन व्याख्यानं करोति ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
अब यह वैयावृत्ति आदि लक्षण शुभोपयोग मुनियों को गौणरूप से और श्रावकों को मुख्यरूप से करना चाहिये; ऐसा प्रसिद्ध करते हैं --
[भणिदा] कही गई है । कर्मता को प्राप्त क्या कही गई है? [चरिया] चारित्र, अनुष्ठान- चर्या कही गई है । वह चर्या किस विशेषता वाली है? [एसा] यह प्रत्यक्षीभूत (विद्यमान) वह चर्या है । और वह किसरूप है ? [पसत्थभूदा] धर्मानुरागरूप है । वह चर्या किनकी है? [समणाणं वा] श्रमणों की वह चर्या है अथवा [पुणो घरत्थाणं] तथा गृहस्थों के तो यही चर्या [परेत्ति] सर्वोत्कृष्ट-मुख्य है । [ता एव परं लहदि सोक्खं] गृहस्थ उसी शुभोपयोग चर्या द्वारा परम्परा से मोक्षसुख प्राप्त करते हैं ।
वह इसप्रकार- मुनि अन्य मुनियों की वैयावृत्ति करते हुये शरीर से कुछ भी निर्दोष वैयावृत्ति करते हैं और वचन से धर्मोपदेश देते हैं । शेष औषध, अन्न-पान आदि गृहस्थों के अधीन है; इस कारण वैयावृत्ति रूप धर्म गृहस्थों के मुख्य है, मुनियों के गौण है ।
इस मुख्यता-गौणता का दूसरा कारण भी है- विकार रहित चैतन्य चमत्कार की भावना के प्रतिपक्षभूत विषयकषाय के निमित्त से उत्पन्न आर्त-रौद्र दो दुर्ध्यानों रूप परिणत गृहस्थों के निश्चय धर्म का अवकाश नहीं है, वैयावृत्ति आदि धर्म से दुर्ध्यान की वंचना होती है- खोटे ध्यान रुकते हैं, मुनियों के संसर्ग से निश्चयव्यवहार मोक्षमार्ग के उपदेश का लाभ मिलता है, और उससे वे परम्परा से मोक्षप्राप्त करते हैं- ऐसा अभिप्राय है ॥२८४॥
इसप्रकार पाँच गाथाओं द्वारा लौकिक व्याख्यान सम्बन्धी - पहला स्थल पूरा हुआ ।
(अब शुभोपयोग का स्वरूप प्रतिपादक आठ गाथाओं में निबद्ध दूसरा स्थल प्रारम्भ होता है ।)