ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 265 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
अववददि सासणत्थं समणं दिट्ठा पदोसदो जो हि । (265)
किरियासु णाणुमण्णदि हवदि हि सो णट्ठचारित्तो ॥304॥
अर्थ:
[यः हि] जो [शासनस्थ श्रमणं] शासनस्थ (जिनदेव के शासन में स्थित) श्रमण को [दृष्ट्वा] देखकर [प्रद्वेषत:] द्वेष से [अपवदति] उसका अपवाद करता है और [क्रियासु न अनुमन्यते] (सत्कारादि) क्रियाओं से करने में अनुमत (पसन्न) नहीं है [सः नष्टचारित्र: हि भवति] उसका चारित्र नष्ट होता है ॥२६५॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ श्रामण्येन सममननुमन्यमानस्य विनाशं दर्शयति -
श्रमणं शासनस्थमपि प्रद्वेषादपवदत: क्रियास्वननुमन्यमानस्य च प्रद्वेषकषायित्वाच्चारित्रं नश्यति ॥२६५॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, जो श्रामण्य से समान हैं उनका अनुमोदन (आदर) न करनेवाले का विनाश बतलाते हैं :-
जो श्रमण द्वेष के कारण शासनस्थ श्रमण का भी अपवाद बोलता है और (उसके प्रति सत्कारादि) क्रियायें करने में अनुमत नहीं है, वह श्रमण द्वेष से कषायित होने से उसका चारित्र नष्ट हो जाता है ॥२६५॥