ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 266 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
गुणदोधिगस्स विणयं पडिच्छगो जो वि होमि समणो त्ति । (266)
होज्जं गुणाधरो जदि सो होदि अणंतसंसारी ॥305॥
अर्थ:
[यः] जो श्रमण [यदि गुणाधर: भवन्] गुणों में हीन होने पर भी [अपि श्रमण: भवामि] मैं भी श्रमण हूँ, [इति] ऐसा मानकर अर्थात् गर्व करके [गुणत: अधिकस्य] गुणों में अधिक (ऐसे श्रमण) के पास से [विनयं प्रत्येषक:] विनय (करवाना) चाहता है [सः] वह [अनन्तसंसारी भवति] अनन्तसंसारी होता है ॥२६६॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ श्रामण्येनाधिकं हीनमिवाचरतो विनाशं दर्शयति-
स्वयं जघन्यगुण: सन् श्रमणोऽहमपीत्यवलेपात्परेषां गुणाधिकानां विनयं प्रतीच्छन् श्रामण्यावलेपवशात् कदाचिदनन्तसंसार्यपि भवति ॥२६६॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, जो श्रामण्य में अधिक हो उसके प्रति जैसे कि वह श्रामण्य में हीन (अपने से मुनिपने में नीचा) हो ऐसा आचरण करनेवाले का विनाश बतलाते हैं :-
जो श्रमण स्वयं जघन्य गुणों वाला होने पर भी मैं भी श्रमण हूँ, ऐसे गर्व के कारण दूसरे अधिक गुण वालों (श्रमणों) से विनय की इच्छा करता है, वह श्रामण्य के गर्व के वश से कदाचित् अनन्त संसारी भी होता है ॥२६६॥