ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 267 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
अधिगगुणा सामण्णे वट्टंति गुणाधरेहिं किरियासु । (267)
जदि ते मिच्छुवजुत्ता हवंति पब्भट्ठचारित्ता ॥306॥
अर्थ:
[यदि श्रामण्ये अधिकगुणा:] जो श्रामण्य में अधिक गुण वाले हैं, तथापि [गुणाधरै:] हीन गुण वालों के प्रति [क्रियासु] (वंदनादि) क्रियाओं में [वर्तन्ते] वर्तते हैं, [ते] वे [मिथ्योपयुक्ता:] मिथ्या उपयुक्त होते हुए [प्रभ्रष्टचारित्रा: भवन्ति] चारित्र से भ्रष्ट होते हैं ॥२६७॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ श्रामण्येनाधिकस्य हीनं सममिवाचरतो विनाशं दर्शयति -
स्वयमधिकगुणा गुणाधरै: परै: सह क्रियासु वर्तमाना मोहादसम्यगुपयुक्तत्वाच्चारित्राद्-भ्रश्यन्ति ॥२६७॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, जो श्रमण श्रामण्य से अधिक हो वह, जो अपने से हीन श्रमण के प्रति समान जैसा (अपने बराबरीवाले जैसा) आचरण करे तो उसका विनाश बतलाते हैं :-
जो स्वयं अधिक गुण वाले होने पर भी अन्य हीन गुण वालों (श्रमणों) के प्रति (वंदनादि) क्रियाओं में वर्तते हैं वे मोह के कारण असम्यक् उपयुक्त होते हुए (मिथ्याभावों में युक्त होते हुए) चारित्र से भ्रष्ट होते हैं ॥२६७॥