ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 269 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
णिग्गंथं पव्वइदो वट्टदि जदि एहिगेहिं कम्मेहिं । (269)
सो लोगिगो त्ति भणिदो संजमतवसंपजुत्तो वि ॥281॥
अर्थ:
[नैर्ग्रन्थ्यं प्रव्रजित:] जो (जीव) निर्ग्रंथरूप से दीक्षित होने के कारण [संयमतप: संप्रयुक्त: अपि] संयम-तप-संयुक्त हो उसे भी, [यदि सः] यदि वह [ऐहिकै कर्मभि: वर्तते] ऐहिक कार्यों सहित वर्तता हो तो, [लौकिक: इति भणित:] लौकिक कहा गया है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ लौकिकलक्षणमुपलक्षयति -
प्रतिज्ञातपरमनैर्ग्रन्थ्यप्रव्रज्यत्वादुदूढसंयमतपोभारोऽपि मोहबहुलतया श्लथीकृतशुद्धचेतन-व्यवहारो मुहुर्मनुष्यव्यवहारेण व्याधूर्णमानत्वादैहिककर्मानिवृत्तै लौकिक इत्युच्यते ॥२६९॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, 'लौकिक' (जन) का लक्षण कहते हैं :-
परम-निर्ग्रन्थतारूप प्रवृज्या की प्रतिज्ञा ली होने से जो जीव संयम-तप के भार को वहन करता हो उसे भी, यदि उस मोह की बहुलता के कारण शुद्धचेतन व्यवहार को छोड़कर निरंतर मनुष्य-व्यवहार के द्वारा चक्कर खाने से ऐहिक कर्मों से अनिवृत्त हो तो, लौकिक कहा जाता है ॥२६९॥