ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 270 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
तम्हा समं गुणादो समणो समणं गुणेहिं वा अहियं । (270)
अधिवसदु तम्हि णिच्चं इच्छदि जदि दुक्खपरिमोक्खं ॥282॥
अर्थ:
[तस्मात्] (लौकिकजन के संग से संयत भी असंयत होता है) इसलिये [यदि] यदि [श्रमण:] श्रमण [दुःखपरिमोक्षम् इच्छति] दुःख से परिमुक्त होना चाहता हो तो वह [गुणात्समं] समान गुणों वाले श्रमण के [वा] अथवा [गुणै: अधिकं श्रमणं तत्र] अधिक गुणों वाले श्रमण के संग में [नित्यम्] सदा [अधिवसतु] निवास करो ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ सत्संगं विधेयत्वेन दर्शयति -
यत: परिणामस्वभावत्वेनात्मन: सप्तार्चि:संगतं तोयमिवावश्यंभाविविकारत्वाल्लौकिक- संगात्संयतोऽप्यसंयत एव स्यात्, ततो दु:खमोक्षार्थिना गुणै: समोऽधिको वा श्रमण: श्रमणेन नित्यमेवाधिवसनीय: तथास्य शीतापवरककोणनिहितशीततोयवत्समगुणसंङ्गात्गुणरक्षा शीत-तरतुहिनर्शकरासंपृक्तशीततोयवत् गुणाधिकसंगात् गुणवृद्धि: ॥२७०॥
इत्यध्यास्य शुभोपयोगजनितां कान्चित्प्रवृत्तिं यति:
सम्यक संयमसौष्ठवेन परमां क्रामन्निवृत्तिं क्रमात
हेलाक्रान्त-समस्त-वस्तु-विसर-प्रस्तार-राम्योदयां
ज्ञानानन्दमयीं दशामनुभवत्वेकान्तात: शास्व्तीम ॥१७॥
अथ पंचरत्नम् ।
तन्त्रस्यास्य शिखण्डमण्डनमिव प्रद्योतयत्सर्वतो
ऽद्वैतीयीकमथार्हतो भगवत: संक्षेपत: शासनम
व्याकुर्वन्जगतो विलक्षणपंथा संसारमोक्षस्थितिं
जीयात्सम्प्रति पंचरत्नमनघं सूत्रैरिमै: पंचभि: ॥१८॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, सत्संग विधेय (करने योग्य) है, ऐसा बतलाते हैं : —
आत्मा परिणामस्वभाव वाला है इसलिये अग्नि के संग में रहे हुए पानी की भाँति (संयत के भी) लौकिकसंग से विकार अवश्यंभावी होने से संयत भी असंयत ही हो जाता है । इसलिये दुःखमोक्षार्थी (दुःखों से मुक्ति चाहने वाले) श्रमण को
- समान गुण वाले श्रमण के साथ अथवा
- अधिक गुण वाले श्रमण के साथ
- शीतल घर के कोने में रखे हुए शीतल पानी की भाँति समान गुणवाले की संगति से गुण रक्षा होती है और
- अधिक शीतल हिम (बरफ) के संपर्क में रहनेवाले शीतल पानी की भांति अधिक गुण वाले के संग से गुणवृद्धि होती है ॥२७०॥
(( (कलश-१७--मनहरण कवित्त)
इसप्रकार शुभ उपयोगमयी किंचित् ही ।
शुभरूप वृत्ति का सुसेवन करके ॥
सम्यक्प्रकार से संयम के सौष्टव से ।
आप ही क्रमशर निरवृत्ति करके ॥
अरे ज्ञानसूर्य का है अनुपम जो उदय ।
सब वस्तुओं को मात्र लीला में ही जान लो ॥
ऐसी ज्ञानानन्दमयी दशा एकान्ततः ।
अपने में आपही नित अनुभव करो ॥१७॥))
इस प्रकार शुभोपयोगजनित किंचित् प्रवृत्ति का सेवन करके यति सम्यक् प्रकार से संयम के सौष्ठव (श्रेष्ठता, सुन्दरता) से क्रमश: परम निवृत्ति को प्राप्त होता हुआ; जिसका रम्य उदय समस्त वस्तुसमूह के विस्तार को लीलामात्र से प्राप्त हो जाता है (जान लेता है) ऐसी शाश्वती ज्ञानानन्दमयी दशा का एकान्तत: (केवल, सर्वथा, अत्यन्त) अनुभव करो ।
((इस प्रकार शुभोपयोग-प्रज्ञापन पूर्ण हुआ ।))