ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 26 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
सव्वगदो जिणवसहो सव्वे वि य तग्गया जगदि अट्ठा । (26)
णाणमयादो य जिणो विसयादो तस्स ते भणिदा ॥27॥
अर्थ:
[जिनवृषभ:] जिनवर [सर्वगत:] सर्वगत हैं [च] और [जगति] जगत के [सर्वे अपि अर्था:] सर्व पदार्थ [तद्गता:] जिनवरगत (जिनवर में प्राप्त) हैं; [जिन: ज्ञानमयत्वात्] क्योंकि जिन ज्ञानमय हैं [च] और [ते] वे सब पदार्थ [विषयत्वात्] ज्ञान के विषय होने से [तस्य] जिन के विषय [भणिता:] कहे गये हैं ॥२६॥
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ यथा ज्ञानं पूर्वं सर्वगतमुक्तं तथैव सर्वगतज्ञानापेक्षया भगवानपिसर्वगतो भवतीत्यावेदयति --
सव्वगदो सर्वगतो भवति । स कः कर्ता । जिणवसहो जिनवृषभः सर्वज्ञः । कस्मात् सर्वगतो भवति । जिणो जिनः णाणमयादो य ज्ञानमयत्वाद्धेतोः सव्वे वि य तग्गया जगदि अट्ठा सर्वेऽपि च ये जगत्यर्थास्ते दर्पणे बिम्बवद् व्यवहारेण तत्र भगवति गता भवन्ति । कस्मात् । ते भणिदा तेऽर्थास्तत्र गता भणिताः विसयादो विषयत्वात्परिच्छेद्यत्वात् ज्ञेयत्वात् । कस्य । तस्स तस्यभगवत इति । तथाहि --
यदनन्तज्ञानमनाकुलत्वलक्षणानन्तसुखं च तदाधारभूतस्तावदात्मा । इत्थं-भूतात्मप्रमाणं ज्ञानमात्मनः स्वस्वरूपं भवति । इत्थंभूतं स्वस्वरूपं देहगतमपरित्यजन्नेव लोकालोकंपरिच्छिनत्ति । ततः कारणाद्वयवहारेण सर्वगतो भण्यते भगवान् । येन च कारणेन नीलपीतादिबहिः-पदार्था आदर्शे बिम्बवत् परिच्छित्त्याकारेण ज्ञाने प्रतिफ लन्ति ततः कारणादुपचारेणार्थकार्यभूता अर्थाकारा अप्यर्था भण्यन्ते । ते च ज्ञाने तिष्ठन्तीत्युच्यमाने दोषो नास्तीत्यभिप्रायः ॥२६॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
अब जैसे पहले (२४ वीं गाथा में) ज्ञान को सर्वगत कहा था, उसीप्रकार सर्वगत ज्ञान की अपेक्षा भगवान भी सर्वगत हैं यह ज्ञान कराते हैं -
[सव्वगदो] सर्वगत हैं । कर्तारूप वे सर्वगत कौन हैं? [जिणवसहो] - सर्वज्ञ सर्वगत हैं । सर्वज्ञ सर्वगत क्यों हैं? [जिणो णाणमयादो य] - सर्वज्ञ-जिन ज्ञानमय होने के कारण सर्वगत हैं । [सव्वे वि य तग्गया जगदि अट्ठा] - और वे जगत् के सभी पदार्थ, दर्पण में बिम्ब के समान, व्यवहार से उन भगवान में गये हैं । वे पदार्थ भगवान में गये हैं, यह कैसे जाना? [ते भणिया] - वे पदार्थ वहाँ गये हैं - ऐसा कहा गया है । [विषयादो] - ज्ञान के विषय - ज्ञेय होने से वे पदार्थ भगवान में गये हैं - ऐसा कहा गया है । किसके ज्ञेय होने से वे गये हुये कहे गये हैं? [तस्स] - भगवान के ज्ञेय होने से वे भगवान में गये हुये कहे गये हैं ।
वह इसप्रकार - जो अनन्तज्ञान और अनाकुलता लक्षण अनन्तसुख का आधार है वह आत्मा है ।
ऐसा होने से आत्मप्रमाण ज्ञान आत्मा का अपना स्वरूप है । ऐसे अपने स्वरूप को तथा शरीर में रहने रूप स्थिति को नहीं छोड़ते हुये ही वे सर्वज्ञ लोकालोक को जानते हैं । इसलिये व्यवहार से भगवान सर्वगत कहे गये हैं । और दर्पण में बिम्ब के समान क्योंकि नीले, पीले आदि बाह्य पदार्थ जानकारी-रूप से ज्ञान में प्रतिबिम्बित होते हैं (झलकते है), इसलिये पदार्थों के कार्यभूत पदार्थाकार भी पदार्थ कहलाते हैं और वे ज्ञान में स्थित हैं - ऐसे कथन में दोष नही है - यह अभिप्राय है ।