ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 27 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
णाणं अप्प त्ति मदं वट्टदि णाणं विणा ण अप्पाणं । (27)
तम्हा णाणं अप्पा अप्पा णाणं व अण्णं वा ॥28॥
अर्थ:
[ज्ञानं आत्मा] ज्ञान आत्मा है [इति मतं] ऐसा जिन-देव का मत है । [आत्मानं विना] आत्मा के बिना (अन्य किसी द्रव्य में) [ज्ञानं न वर्तते] ज्ञान नहीं होता, [तस्मात्] इसलिये [ज्ञानं आत्मा] ज्ञान आत्मा है; [आत्मा] और आत्मा [ज्ञानं वा] (ज्ञान गुण द्वारा) ज्ञान है [अन्यत् वा] अथवा (सुखादि अन्य गुण द्वारा) अन्य है ॥२७॥
तात्पर्य-वृत्ति:
अथज्ञानमात्मा भवति, आत्मा तु ज्ञानं सुखादिकं वा भवतीति प्रतिपादयति --
णाणं अप्प त्ति मदं ज्ञानमात्माभवतीति मतं सम्मतम् । कस्मात् । वट्टदि णाणं विणा ण अप्पाणं ज्ञानं कर्तृ विनात्मानं जीवमन्यत्र घटपटादौ न वर्तते । तम्हा णाणं अप्पा तस्मात् ज्ञायते कथंचिज्ज्ञानमात्मैव स्यात् । इति गाथापादत्रयेणज्ञानस्य कथंचिदात्मत्वं स्थापितम् । अप्पा णाणं व अण्णं वा आत्मा तु ज्ञानधर्मद्वारेण ज्ञानं भवति,सुखवीर्यादिधर्मद्वारेणान्यद्वा नियमो नास्तीति । तद्यथा --
यदि पुनरेकान्तेन ज्ञानमात्मेति भण्यते तदाज्ञानगुणमात्र एवात्मा प्राप्तः सुखादिधर्माणामवकाशो नास्ति । तथा सुखवीर्यादिधर्मसमूहाभावादात्मा-भावः, आत्मन आधारभूतस्याभावादाधेयभूतस्य ज्ञानगुणस्याप्यभावः, इत्येकान्ते सति द्वयोरप्यभावः । तस्मात्कथंचिज्ज्ञानमात्मा न सर्वथेति । अयमत्राभिप्राय: -
आत्मा व्यापको ज्ञानं व्याप्यं ततोज्ञानमात्मा स्यात्, आत्मा तु ज्ञानमन्यद्वा भवतीति । तथा चोक्तम् - ((व्यापकं तदतन्निष्ठं व्याप्यं तन्निष्ठमेव च)) ॥२७॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
अब ज्ञान आत्मा है, परन्तु आत्मा ज्ञान अथवा सुखादि भी है, ऐसा प्रतिपादित करते हैं -
[णाणं अप्प त्ति मदं] - ज्ञान आत्मा है, यह स्वीकृत है । ज्ञान आत्मा है - ऐसा क्यों स्वीकार किया गया है ? [वट्टदि णाणं विणा ण अप्पाणं] - ज्ञानरूप कर्ता स्वजीव के बिना अन्यत्र घड़े, कपड़े आदि में नहीं रहता हैं । [तम्हा णाणं अप्पा] - इससे जाना जाता है कि कथंचित् ज्ञान आत्मा ही है । इसप्रकार गाथा के तीन चरणों से ज्ञान का कथंचित् आत्मत्व स्थित हुआ । [अप्पा णाणं व अण्णं वा] - आत्मा ज्ञानधर्म की अपेक्षा ज्ञान है; सुख, वीर्य आदि धर्मों की अपेक्षा अन्य भी है; नियम नही है ।
वह इसप्रकार - यदि एकान्त से "ज्ञान आत्मा है" - यह कहा जाये तो ज्ञान गुण मात्र ही आत्मा प्राप्त होता है, सुखादि धर्मों के लिये स्थान नहीं रहता । ऐसी स्थिति में सुख, वीर्य आदि धर्म-समूहों का अभाव होने से आत्मा का अभाव होगा । आधारभूत आत्मा का अभाव होने पर आधेयभूत ज्ञानगुण का भी अभाव होगा - इसप्रकार एकान्त मानने पर दोनों का ही अभाव हो जाएगा । इसलिये आत्मा कथंचित् ज्ञान है, सर्वथा नहीं ।
यहाँ अभिप्राय यह है कि आत्मा व्यापक है और ज्ञान व्याप्य; इसलिये ज्ञान आत्मा हो परन्तु आत्मा ज्ञान भी है और अन्य भी है ।
वैसा ही कहा भी है - 'व्यापक तद् और अतद् दोनों में रहता है परन्तु व्याप्य मात्र तद् में ही रहता है । '
इसप्रकार (क्षेत्र अपेक्षा) आत्मा और ज्ञान का एकत्व तथा व्यवहार से ज्ञान का सर्वगतत्व इत्यादि कथनरूप से दूसरे स्थल में पाँच गाथायें पूर्ण हुईं ।