ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 32 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
गेण्हदि णेव ण मुंचदि ण परं परिणमदि केवली भगवं । (32)
पेच्छदि समंतदो सो जाणदि सव्वं णिरवसेसं ॥33॥
अर्थ:
[केवली भगवान्] केवली भगवान [परं] पर को [न एव गृह्णाति] ग्रहण नहीं करते, [न मुंचति] छोड़ते नहीं, [न परिणमति] पररूप परिणमित नहीं होते; [सः] वे [निरवशेष सर्वं] निरवशेषरूप से सबको (सम्पूर्ण आत्मा को, सर्व ज्ञेयों को) [समन्तत:] सर्व ओर से (सर्व आत्मप्रदेशों से) [पश्यति] देखते-जानते हैं ॥३२॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथैवं ज्ञानिनोऽर्थै: सहान्योन्यवृत्तिमत्त्वेऽपि परग्रहणमोक्षणपरिणमनाभावेन सर्वं पश्यतो-ऽध्यवस्यतश्चात्यन्तविविक्तत्वं भावयति -
अयं खल्वात्मा स्वभावत एव परद्रव्यग्रहणमोक्षणपरिणमनाभावात्स्वतत्त्वभूतकेवलज्ञान-स्वरूपेण विपरिणम्य निष्कम्पोन्मज्जज्योतिर्जात्यमणिकल्पो भूत्वाऽवतिष्ठमान: समन्तत: स्फुरितदर्शनज्ञानशक्ति:, समस्तमेव नि:शेषतयात्मानमात्मनात्मनि संचेतयते । अथवा युगपदेव सर्वार्थसार्थकसाक्षात्करणेन ज्ञप्तिपरिवर्तनाभावात् संभावितग्रहणमोक्षणलक्षणक्रियाविराम: प्रथममेव समस्तपरिच्छेद्याकारपरिणतत्वात् पुन: परमाकारान्तरमपरिणममान: समन्ततोऽपि विश्वमशेषं पश्यति जानाति च एवमस्यात्यन्तविविक्तत्वमेव ॥३२॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, इसप्रकार (व्यवहार से) आत्मा की पदार्थों के साथ एक दूसरे में प्रवृत्ति होने पर भी, (निश्चय से) वह पर का ग्रहण -त्याग किये बिना तथा पररूप परिणमित हुए बिना सबको देखता-जानता है इसलिये उसे (पदार्थों के साथ) अत्यन्त भिन्नता है ऐसा बतलाते हैं :-
यह आत्मा, स्वभाव से ही परद्रव्य के ग्रहण-त्याग का तथा पर-द्रव्यरूप से परिणमित होने का (उसके) अभाव होने से, स्व-तत्त्वभूत केवल-ज्ञानरूप से परिणमित होकर निष्कंप निकलने वाली ज्योति-वाला उत्तम मणि जैसा होकर रहता हुआ,
- जिसके सर्व ओर से (सर्व आत्म-प्रदेशों से) दर्शन-ज्ञान शक्ति स्फुरित है ऐसा होता हुआ, १निःशेष-रूप से परिपूर्ण आत्मा को, आत्मा से, आत्मा में संचेतता-जानता-अनुभव करता है, अथवा
- एक-साथ ही सर्व पदार्थों के समूह का २साक्षात्कार करने के कारण ज्ञप्ति-परिवर्तन का अभाव होने से जिसके ३ग्रहण-त्यागरूप क्रिया विराम को प्राप्त हुई है ऐसा होता हुआ, पहले से ही समस्त ज्ञेयाकार-रूप परिणमित होने से फिर पररूप से -- ४आकारान्तर-रूप से नहीं परिणमित होता हुआ सर्व प्रकार से अशेष विश्व को, (मात्र) देखता-जानता है ।
१निःशेषरूप से = कुछ भी किंचित् मात्र शेष न रहे इस प्रकार से
२साक्षात्कार करना = प्रत्यक्ष जानना
३ज्ञप्ति-क्रिया का बदलते रहना = अर्थात् ज्ञान में एक ज्ञेय को ग्रहण करना और दूसरे को छोड़ना सो ग्रहण-त्याग है; इस प्रकार का ग्रहण-त्याग वह क्रिया है, ऐसी क्रिया का केवली-भगवान के अभाव हुआ है
४आकारान्तर = अन्य आकार