ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 33 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
जो हि सुदेण विजाणादि अप्पाणं जाणगं सहावेण । (33)
तं सुदकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पदीवयरा ॥34॥
अर्थ:
[यः हि] जो वास्तव में [श्रुतेन] श्रुतज्ञान के द्वारा [स्वभावेन ज्ञायकं] स्वभाव से ज्ञायक (अर्थात् ज्ञायक-स्वभाव) [आत्मानं] आत्मा को [विजानाति] जानता है [तं] उसे [लोकप्रदीपकरा:] लोक के प्रकाशक [ऋषय:] ऋषीश्वरगण [श्रुतकेवलिन भणन्ति] श्रुतकेवली कहते हैं ॥३३॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ केवलज्ञानिश्रुतज्ञानिनोरविशेषदर्शनेन विशेषाकांक्षाक्षोभं क्षपयति -
यथा भगवान् युगपत्परिणतसमस्तचैतन्यविशेषशालिना केवलज्ञानेनादिनिधननिष्कारणा-साधारणस्वसंचेत्यमानचैतन्यसामान्यमहिम्नेश्चेतकस्वभावेनैकत्वात् केवलस्यात्मन आत्म-नात्मनि संचेतनात् केवली, तथायं जनोऽपि क्रमपरिणममाणकतिपयचैतन्यविशेषशालिना श्रुतज्ञानेनानादिनिधननिष्कारणासाधारणस्वसंचेत्यमानचैतन्यसामान्यमहिम्नश्चेतकस्व-भावेनैकत्वात् केवलस्यात्मन आत्मनात्मनि संचेतनात् श्रुतकेवली । अलं विशेषाकांक्षाक्षोभेण, स्वरूपनिश्चलैरेवास्थीयते ॥३३॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब केवलज्ञानी को और श्रुतज्ञानी को अविशेषरूप से दिखाकर विशेष आकांक्षा के क्षोभ का क्षय करते हैं (अर्थात् केवलज्ञानी में और श्रुतज्ञानी में अन्तर नहीं है ऐसा बतलाकर विशेष जानने की इच्छा के क्षोभ को नष्ट करते हैं ) :-
जैसे भगवान, युगपत् परिणमन करते हुए समस्त
- चैतन्य विशेषयुक्त केवल-ज्ञान के द्वारा,
- १अनादिनिधन- २निष्कारण- ३असाधारण- ४स्वसंवेद्यमान चैतन्य-सामान्य जिसकी महिमा है
१अनादिनिधन = अनादि- अनन्त (चैतन्यसामान्य आदि तथा अन्त रहित है)
२निष्कारण = जिसका कोई कारण नहीं हैं ऐसा; स्वयंसिद्ध; सहज
३असाधारण = जो अन्य किसी द्रव्यमें न हो, ऐसा
४स्वसंवेद्यमान = स्वत: ही अनुभवमें आनेवाला
५चेतक = चेतनेवाला; दर्शकज्ञायक
६आत्मा निश्चय से परद्रव्य के तथा राग-द्वेषादि के संयोगों तथा गुण-पर्याय के भेदों से रहित, मात्र चेतक-स्वभावरूप ही है, इसलिये वह परमार्थ से केवल (अकेला, शुद्ध, अखंड) है