ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 36 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
तम्हा णाणं जीवो णेयं दव्वं तिहा समक्खादं । (36)
दव्वं ति पुणो आदा परं च परिणामसंबद्धं ॥37॥
अर्थ:
[तस्मात्] इसलिये [जीव: ज्ञानं] जीव ज्ञान है [ज्ञेयं] और ज्ञेय [त्रिधा समाख्यातं] तीन प्रकार से वर्णित (त्रिकालस्पर्शी) [द्रव्यं] द्रव्य है । [पुन: द्रव्यं इति] (वह ज्ञेयभूत) द्रव्य अर्थात् [आत्मा] आत्मा (स्वात्मा) [पर: च] और पर [परिणामसम्बद्ध] जो कि परिणाम वाले हैं ॥३६॥
तात्पर्य-वृत्ति:
अथात्मा ज्ञानं भवति शेषं तुज्ञेयमित्यावेदयति --
तम्हा णाणं जीवो यस्मादात्मैवोपादानरूपेण ज्ञानं परिणमति तथैव पदार्थान्परिच्छिनत्ति, इति भणितं पूर्वसूत्रे, तस्मादात्मैव ज्ञानं । णेयं दव्वं तस्य ज्ञानरूपस्यात्मनो ज्ञेयं भवति । किम् । द्रव्यम् । तिहा समक्खादं तच्च द्रव्यं कालत्रयपर्यायपरिणतिरूपेण द्रव्यगुणपर्यायरूपेण वा तथैवोत्पादव्ययध्रौव्यरूपेण च त्रिधा समाख्यातम् । दव्वं ति पुणो आदा परं च तच्च ज्ञेयभूतं द्रव्यमात्माभवति परं च । कस्मात् । यतो ज्ञानं स्वं जानाति परं चेति प्रदीपवत् । तच्च स्वपरद्रव्यं कथंभूतम् । परिणामसंबद्धं कथंचित्परिणामीत्यर्थः । नैयायिकमतानुसारी कश्चिदाह --
ज्ञानं ज्ञानान्तरवेद्यं प्रमेयत्वात् घटादिवत् । परिहारमाह --
प्रदीपेन व्यभिचारः, प्रदीपस्तावत्प्रमेयः परिच्छेद्यो ज्ञेयो भवति न चप्रदीपान्तरेण प्रकाश्यते, तथा ज्ञानमपि स्वयमेवात्मानं प्रकाशयति न च ज्ञानान्तरेण प्रकाश्यते । यदिपुनर्ज्ञानान्तरेण प्रकाश्यते तर्हि गगनावलम्बिनी महती दुर्निवारानवस्था प्राप्नोतीति सूत्रार्थः ॥३६॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
अब आत्मा ज्ञान है और शेष ज्ञेय हैं, ऐसा निरूपण करते हैं -
[तम्हा णाणं जीवो] - क्योंकि आत्मा ही उपादान रूप से ज्ञानरूप परिणमित है, उसी प्रकार पदार्थों को जानता है, ऐसा पहले गाथा (३६) में कहा था, अत: आत्मा ही ज्ञान है । आत्मा का ज्ञेय कौन है? द्रव्य आत्मा का ज्ञेय है । [तिहा समक्खादं] - और वह द्रव्य तीन कालवर्ती पर्यायों की परिणति रूप से अथवा द्रव्य-गुण-पर्याय रूप से और उसी प्रकार उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप से तीन प्रकार का कहा गया है । [दव्वं ति पुणो आदा परं च] - और वह ज्ञेयभूत द्रव्य आत्मा और पर है । ज्ञेयभूत द्रव्य आत्मा और पर कैसे है? दीपक के समान ज्ञान स्व और पर को जानता है; अत: ज्ञेयभूत् द्रव्य स्व और पर हैं । और वे स्व-पर द्रव्य कैसे हैं? [परिणामसंबद्धं] - वे स्व-पर द्रव्य कथंचित् परिणामी हैं - यह अर्थ है ।
यहाँ नैयायिक मत का अनुसरण करने वाला कोई कहता है - घट आदि के समान प्रमेयता होने से ज्ञान ज्ञानान्तर से (अन्य ज्ञान से) जानने योग्य है? आचार्य उसका निराकरण करते है - आपका यह कथन दीपक के साथ दोष को प्राप्त है । जिसप्रकार दीपक प्रमेय-परिच्छेद्य-ज्ञेय -- जानने योग्य होने पर भी दूसरे दीपक से प्रकाशित नही होता (अपितु स्वयं प्रकाशित है); उसी प्रकार ज्ञान भी स्वयं ही स्वयं को प्रकाशित करता है, दूसरे ज्ञान से प्रकाशित नही होता । यदि वह ज्ञान स्वयं को प्रकाशित न करता हुआ दूसरे ज्ञान से प्रकाशित हो तो आकाश व्यापी महान दुर्निवार अनवस्था प्राप्त होती है - यह गाथा का अर्थ है ।
इसप्रकार निश्चय-श्रुतकेवली - व्यवहार-श्रुतकेवली कथन की मुख्यता से, भिन्न ज्ञान निराकरण और ज्ञान-ज्ञेय स्वरूप कथन से चौथे स्थल में चार गाथायें पूर्ण हुईं ।