ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 37 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
तक्कालिगेव सव्वे सदसब्भूदा हि पज्जया तासिं । (37)
वट्टन्ते ते णाणे विसेसदो दव्वजादीणं ॥38॥
अर्थ:
[तासाम् द्रव्यजातीनाम्] उन (जीवादि) द्रव्य-जातियों की [ते सर्वे] समस्त [सदसद्भूता: हि] विद्यमान और अविद्यमान [पर्याया:] पर्यायें [तात्कालिका: इव] तात्कालिक (वर्तमान) पर्यायों की भाँति, [विशेषत:] विशिष्टता-पूर्वक (अपने-अपने भिन्न-भिन्न स्वरूप में) [ज्ञाने वर्तन्ते] ज्ञान में वर्तती हैं ॥३७॥
तात्पर्य-वृत्ति:
एवंनिश्चयश्रुतकेवलिव्यवहारश्रुतकेवलिकथनमुख्यत्वेन भिन्नज्ञाननिराकरणेन ज्ञानज्ञेयस्वरूपकथनेन च चतुर्थस्थले गाथाचतुष्टयं गतम् । अथातीतानागतपर्याया वर्तमानज्ञाने सांप्रता इव दृश्यन्त इतिनिरूपयति --
सव्वे सदसब्भूदा हि पज्जया सर्वे सद्भूता असद्भूता अपि पर्यायाः ये हि स्फुटं वट्टंते ते त पूर्वोक्ताः पर्याया वर्तन्ते प्रतिभासन्ते प्रतिस्फुरन्ति । क्क । णाणे केवलज्ञाने । कथंभूता इव । तक्कालिगेव तात्कालिका इव वर्तमाना इव । कासां सम्बन्धिनः । तासिं दव्वजादीणं तासां प्रसिद्धानां शुद्धजीवद्रव्यादिद्रव्यजातीनामिति व्यवहितसंबन्धः । कस्मात् । विसेसदो स्वकीयस्वकीयप्रदेश-कालाकारविशेषैः संकरव्यतिकरपरिहारेणेत्यर्थः । किंच ---
यथा छद्मस्थपुरुषस्यातीतानागतपर्याया मनसिचिन्तयतः प्रतिस्फुरन्ति, यथा च चित्रभित्तौ बाहुबलिभरतादिव्यतिक्रान्तरूपाणि श्रेणिकतीर्थकरादि-
भाविरूपाणि च वर्तमानानीव प्रत्यक्षेण दृश्यन्ते तथा चित्रभित्तिस्थानीयकेवलज्ञाने भूतभाविनश्च पर्याया युगपत्प्रत्यक्षेण दृश्यन्ते, नास्ति विरोधः । यथायं केवली भगवान् परद्रव्यपर्यायान् परिच्छित्तिमात्रेण शुद्धजीवद्रव्यादिद्रव्यजातीनामिति व्यवहितसंबन्धः । कस्मात् । विसेसदो स्वकीयस्वकीयप्रदेश-कालाकारविशेषैः संकरव्यतिकरपरिहारेणेत्यर्थः । किंच --
यथा छद्मस्थपुरुषस्यातीतानागतपर्याया मनसिचिन्तयतः प्रतिस्फु रन्ति, यथा च चित्रभित्तौ बाहुबलिभरतादिव्यतिक्रान्तरूपाणि श्रेणिकतीर्थकरादि-
भाविरूपाणि च वर्तमानानीव प्रत्यक्षेण दृश्यन्ते तथा चित्रभित्तिस्थानीयकेवलज्ञाने भूतभाविनश्च पर्याया युगपत्प्रत्यक्षेण दृश्यन्ते, नास्ति विरोधः । यथायं केवली भगवान् परद्रव्यपर्यायान् परिच्छित्तिमात्रेण जानाति, न च तन्मयत्वेन, निश्चयेन तु केवलज्ञानादिगुणाधारभूतं स्वकीयसिद्धपर्यायमेव स्वसंवित्त्या-
कारेण तन्मयो भूत्वा परिच्छिनत्ति जानाति, तथासन्नभव्यजीवेनापि निजशुद्धात्मसम्यक्श्रद्धान-ज्ञानानुष्ठानरूपनिश्चयरत्नत्रयपर्याय एव सर्वतात्पर्येण ज्ञातव्य इति तात्पर्यम् ॥३७॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
(अब वर्तमान ज्ञान तीन काल को जानता है, इस तथ्य का प्रतिपादक पाँच गाथाओं में निबद्ध पाँचवां स्थल प्रारम्भ होता है)
अब, भूत-भावि पर्यायें वर्तमान ज्ञान में विद्यमान--वर्तमान की भांति दिखाई देती हैं; ऐसा निरूपण करते हैं -
[सव्वे सदसब्भूदा हि पज्जया] - जो सभी विद्यमान और अविद्यमान पर्यायें हैं, [हि] - वास्तव में, [वट्टन्ते ते] - वे पूर्वोक्त सभी पर्यायें वर्तती हैं, प्रतिभासित होती हैं, ज्ञात होती हैं । विद्यमान-अविद्यमान वे सभी पर्यायें कहाँ वर्तती हैं? [णाणे]- वे सभी पर्यायें केवलज्ञान में वर्तती हैं । वे पर्यायें किसके समान केवलज्ञान में वर्तती हैं? [तक्कालिगेव] - वे वर्तमान पर्यायों के समान केवलज्ञान में वर्तती हैं । वे पर्यायें किनसे सम्बन्धित--किनकी हैं? [तासिं दव्वजादीणं] - उन प्रसिद्ध शुद्ध जीवद्रव्य आदि द्रव्य-जातियों--समूहों की वे पर्यायें हैं । केवलज्ञान में एक साथ वर्तते हुये भी वे सभी पर्यायें परस्पर सम्बन्ध रहित हैं । युगपत् वर्तती हुई वे पर्यायें सम्बन्ध रहित कैसे हैं? [विसेसदो] - अपने-अपने प्रदेश, काल, आकार रूप विशेषों के द्वारा संकर, व्यतिकर दोषों के निराकरण रूप रहने के कारण वे सर्व पर्यायें परस्पर सम्बन्ध रहित हैं - यह अर्थ है ।
विशेष यह है कि जैसे मन में विचार करते हुये छद्मस्थ पुरुष के भूत-भावि पर्यायें स्फुरायमान होती हैं, और जैसे चित्र-दीवाल पर (दीवाल पर बने हुये चित्रों में) बाहुबली-भरत आदि भूतकालीन रूप और श्रेणिक-तीर्थंकर आदि भावि रूप वर्तमान के समान प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, उसीप्रकार चित्र-दीवाल के स्थानीय (समान) केवलज्ञान में भूत-भावि पर्यायें एक साथ प्रत्यक्ष दिखाई देती हैं, एक साथ दिखाई देने में कुछ भी विरोध नही है ।
जैसे ये केवली भगवान परद्रव्य-पर्यायों को जानकारी मात्र से जानते हैं, तन्मयरूप से नहीं, निश्चय से केवलज्ञानादि गुणों की आधारभूत अपनी सिद्ध-पर्याय को ही केवली-भगवान स्वसंवित्ति आकार से तन्मय होकर जानते हैं; उसीप्रकार आसन्न-भव्य जीव को भी निज शुद्धात्मा के सम्यक्श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप निश्चय रत्नत्रय पर्याय ही सर्व प्रयोजन से जानने योग्य है - यह तात्पर्य है ।