ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 45 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
पुण्णफला अरहंता तेसिं किरिया पुणो हि ओदइया । (45)
मोहादीहिं विरहिदा तम्हा सा खाइग त्ति मदा ॥46॥
अर्थ:
[अर्हन्तः] अरहन्त भगवान [पुण्यफला:] पुण्य-फल वाले हैं [पुन: हि] और [तेषां क्रिया] उनकी क्रिया [औदयिकी] औदयिकी है; [मोहादिभि: विरहिता] मोहादि से रहित है [तस्मात्] इसलिये [सा] वह [क्षायिकी] क्षायिकी [इति मता] मानी गई है ॥४५॥
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ पूर्वं यदुक्तं रागादि-रहितकर्मोदयो बन्धकारणं न भवति विहारादिक्रिया च, तमेवार्थं प्रकारान्तरेण दृढयति --
पुण्णफला अरहंता पञ्चमहाकल्याणपूजाजनकं त्रैलोक्यविजयकरं यत्तीर्थकरनाम पुण्यकर्म तत्फलभूता अर्हन्तोभवन्ति । तेसिं किरिया पुणो हि ओदइया तेषां या दिव्यध्वनिरूपवचनव्यापारादिक्रिया सा निःक्रियशुद्धात्म-तत्त्वविपरीतकर्मोदयजनितत्वात्सर्वाप्यौदयिकी भवति हि स्फुटम् । मोहादीहिं विरहिदा निर्मोह-शुद्धात्मतत्त्वप्रच्छादकममकाराहङ्कारोत्पादनसमर्थमोहादिविरहितत्वाद्यतः तम्हा सा खायग त्ति मदा तस्मात्सा यद्यप्यौदयिकी तथापि निर्विकारशुद्धात्मतत्त्वस्य विक्रियामकुर्वती सती क्षायिकीति मता । अत्राहशिष्यः --'औदयिका भावाः बन्धकारणम्' इत्यागमवचनं तर्हि वृथा भवति । परिहारमाह --
औदयिकाभावा बन्धकारणं भवन्ति, परं किंतु मोहोदयसहिताः । द्रव्यमोहोदयेऽपि सति यदि शुद्धात्मभावनाबलेनभावमोहेन न परिणमति तदा बंधो न भवति । यदि पुनः कर्मोदयमात्रेण बन्धो भवति तर्हि संसारिणांसर्वदैव कर्मोदयस्य विद्यमानत्वात् सर्वदैव बन्ध एव, न मोक्ष इत्यभिप्रायः ॥४५॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
अब रागादि रहित कर्मोदय तथा विहारादि क्रिया बंध का कारण नहीं है - ऐसा जो पहले (४४- ४५ वीं गाथा में) कहा था; उसी अर्थ को अन्य प्रकार से दृढ़ करते हैं -
[पुण्यफला अरहंता] महाकल्याणक पूजा को उत्पन्न करने वाला, तीनों लोकों में विजय को करने वाला जो तीर्थंकर नामक पुण्य नामकर्म, उसके फलस्वरूप अरहन्त तीर्थंकर होते हैं । [तेसिं किरिया पुणो हि ओदइया] उनकी जो दिव्यध्वनि-रूप वचन व्यापारादि क्रिया, वह निःक्रिय शुद्धात्म-तत्व से विपरीत कर्मोदय से उत्पन्न होने के कारण वास्तव में सब ही औदयिकी है । [मोहादीहिं विरहिदा] क्योंकि निर्मोह शुद्धात्म-तत्व को आवृत्त करने वाले ममकार-अहंकार को उत्पन्न करने में समर्थ मोहादि से रहित है, [तम्हा सा खायग त्ति मदा] इसलिये यद्यपि वह औदयिकी है, तथापि निर्विकार शुद्धात्म-तत्व में विकार-उत्पादक नहीं होने से क्षायिकी मानी गई है ।
यहाँ शिष्य कहता है- (तीर्थंकरों की औदयिकी क्रिया बंध-कारक नहीं होने से क्षायिकी मानने पर) 'औदयिक भाव बंध के कारण हैं' - यह आगम वचन व्यर्थ है ।
आचार्य इसका निराकरण करते हैं - औदयिक भाव बंध के कारण हैं, किन्तु मोह के उदय से सहित औदयिक भाव ही; अन्य नहीं । द्रव्य मोह का उदय होने पर भी यदि शुद्धात्म-भावना के बल से भाव मोहरूप परिणमन नहीं करता तो बंध नहीं होता । यदि पुन: कर्मोदय मात्र से बंध होता तो संसारियों के सदैव कर्म के उदय की विद्यमानता होने से सदैव--सर्वदा बंध ही होगा, (कभी भी) मोक्ष नहीं हो सकेगा - यह अभिप्राय है ।