ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 46 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
जदि सो सुहो व असुहो ण हवदि आदा सयं सहावेण । (46)
संसारो वि ण विज्जदि सव्वेसिं जीवकायाणं ॥47॥
अर्थ:
[यदि] यदि (ऐसा माना जाये कि) [सः आत्मा] आत्मा [स्वयं] स्वयं [स्वभावेन] स्वभाव से (अपने भाव से) [शुभ: वा अशुभ:] शुभ या अशुभ [न भवति] नहीं होता (शुभाशुभ भाव में परिणमित ही नहीं होता) [सर्वेषां जीवकायाना] तो समस्त जीव-निकायों के [संसार: अपि] संसार भी [न विद्यते] विद्यमान नहीं है ऐसा सिद्ध होगा ॥४६॥
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ यथार्हतांशुभाशुभपरिणामविकारो नास्ति तथैकान्तेन संसारिणामपि नास्तीति सांख्यमतानुसारिशिष्येण पूर्वपक्षे कृते सति दूषणद्वारेण परिहारं ददाति --
जदि सो सुहो व असुहो ण हवदि आदा सयं सहावेण यथैवशुद्धनयेनात्मा शुभाशुभाभ्यां न परिणमति तथैवाशुद्धनयेनापि स्वयं स्वकीयोपादानकारणेन स्वभावेनाशुद्धनिश्चयरूपेणापि यदि न परिणमति तदा । किं दूषणं भवति । संसारो वि ण विज्जदि निस्संसारशुद्धात्मस्वरूपात्प्रतिपक्षभूतो व्यवहारनयेनापि संसारो न विद्यते । केषाम् । सव्वेसिं जीवकायाणं सर्वेषां जीवसंघातानामिति । तथा हि --
आत्मा तावत्परिणामी, स च कर्मोपाधिनिमित्ते सतिस्फटिकमणिरिवोपाधिं गृह्णाति, ततः कारणात्संसाराभावो न भवति । अथ मतम् --
संसाराभावः सांख्यानां दूषणं न भवति, भूषणमेव । नैवम् । संसाराभावो हि मोक्षो भण्यते, स च संसारिजीवानांन दृश्यते, प्रत्यक्षविरोधादिति भावार्थः ॥४६॥
एवं रागादयो बन्धकारणं, न च ज्ञानमित्यादि-व्याख्यानमुख्यत्वेन षष्ठस्थले गाथापञ्चकं गतम् । अथ प्रथमं तावत् केवलज्ञानमेव सर्वज्ञस्वरूपं, तदनन्तरं सर्वपरिज्ञाने सति एकपरिज्ञानं, एकपरिज्ञाने सति सर्वपरिज्ञानमित्यादिकथनरूपेण गाथापञ्चकपर्यन्तं व्याख्यानं करोति । तद्यथा --
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[जदि सो सुहो व असुहो ण हवदि आदा सयं सहावेण] - जैसे शुद्धनय से आत्मा शुभाशुभरूप परिणमित नहीं होता, उसी प्रकार यदि अशुद्धनय से भी स्वयं अपने उपादान कारण स्वभावरूप अशुद्ध निश्चय से भी नहीं परिणमता तो । अशुद्धनय से भी शुभाशुभरूप न परिणमने में क्या दोष होता? [संसारो वि ण विज्जदि] - नि:संसार शुद्धात्मस्वरूप से विपरीत संसार व्यवहारनय से भी नहीं होता । अशुद्धनय से भी उसरूप न परिणमने पर संसार किनके नहीं होता? [सव्वेसिं जीवकायाणं] - सभी जीव समूहों के संसार नहीं होता ।
वह इसप्रकार - प्रथम तो आत्मा परिणामी है, और वह कर्मोपाधि का निमित्त होने पर स्फटिक मणि के समान उपाधि को ग्रहण करता है, इसकारण संसार का अभाव नहीं होता । और यदि ऐसा मत हो कि सांख्यों के लिये संसार का अभाव दोष नही, वरन् भूषण गुण ही है; तो ऐसा भी नहीं है । संसार का अभाव ही मोक्ष कहलाता है और वह प्रत्यक्ष विरोधरूप से संसारी जीवों के दिखाई नहीं देता - यह भाव है ।
इसप्रकार रागादि बंध के कारण हैं, ज्ञान बंध का कारण नहीं है - इत्यादि व्याख्यान की मुख्यता से छठवें स्थल में पाँच गाथायें पूर्ण हुईं ।