ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 55 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
जीवो सयं अमुत्तो मुत्तिगदो तेण मुत्तिणा मुत्तं । (55)
ओगेण्हित्ता जोग्गं जाणदि वा तं ण जाणादि ॥57॥
अर्थ:
[स्वयं अमूर्त:] स्वयं अमूर्त ऐसा [जीव:] जीव [मूर्तिगतः] मूर्त शरीर को प्राप्त होता हुआ [तेन मूर्तेन] उस मूर्त शरीर के द्वारा [योग्य मूर्तं] योग्य मूर्त पदार्थ को [अवग्रह्य] *अवग्रह करके (इन्द्रिय-ग्रहण योग्य मूर्त पदार्थ का अवग्रह करके) [तत्] उसे [जानाति] जानता है [वा न जानाति] अथवा नहीं जानता (कभी जानता है और कभी नहीं जानता) ॥५५॥
*अवग्रह = मतिज्ञान से किसी पदार्थ को जानने का प्रारम्भ होने पर पहले ही अवग्रह होता है क्योंकि मतिज्ञान अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा-इस क्रम से जानता है
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ हेयभूतस्येन्द्रियसुखस्य कारणत्वादल्प-विषयत्वाच्चेन्द्रियज्ञानं हेयमित्युपदिशति --
जीवो सयं अमुत्तो जीवस्तावच्छक्तिरूपेण शुद्धद्रव्यार्थिक-नयेनामूर्तातीन्द्रियज्ञानसुखस्वभावः, पश्चादनादिबन्धवशात् व्यवहारनयेन मुत्तिगदो मूर्तशरीरगतोमूर्तशरीरपरिणतो भवति । तेण मुत्तिणा तेन मूर्तशरीरेण मूर्तशरीराधारोत्पन्नमूर्तद्रव्येन्द्रियभावेन्द्रियाधारेण मुत्तं मूर्तं वस्तु ओगेण्हित्ता अवग्रहादिकेन क्रमकरणव्यवधानरूपं कृत्वा जोग्गं तत्स्पर्शादिमूर्तं वस्तु । कतंभूतम् । इन्द्रियग्रहणयोग्यइन्द्रियग्रहणयोग्यम् । जाणदि वा तं ण जाणादि स्वावरणक्षयोपशमयोग्यं किमपि स्थूलंजानाति, विशेषक्षयोपशमाभावात् सूक्ष्मं न जानातीति । अयमत्र भावार्थः --
इन्द्रियज्ञानं यद्यपिव्यवहारेण प्रत्यक्षं भण्यते, तथापि निश्चयेन केवलज्ञानापेक्षया परोक्षमेव । परोक्षं तु यावतांशेन सूक्ष्मार्थंन जानाति तावतांशेन चित्तखेदकारणं भवति । खेदश्च दुःखं, ततो दुःखजनकत्वादिन्द्रियज्ञानंहेयमिति ॥५५॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
अब हेयभूत इन्द्रिय-सुख का कारण होने से और अल्प-विषय होने से इन्द्रिय-ज्ञान हेय है ऐसा उपदेश देते हैं -
[जीवो सयं अमुत्तो] - प्रथम तो जीव शक्तिरूप से शुद्ध-द्रव्यार्थिक-नय से अमूर्त, अतीन्द्रिय ज्ञान-सुख स्वाभावी है, बाद में अनादि बंध के वश से व्यवहार-नय से [मुत्तिगदो] – मूर्त शरीरगत – मूर्त शरीररूप से परिणत होता है । [तेण मुत्तिणा] – उस मूर्त शरीर से – मूर्त शरीर के आधार से उत्पन्न मूर्त द्रव्येंद्रिय-भावेंद्रिय के आधार से [मुत्तं] मूर्त वस्तु को [ओगेण्हित्ता] – अवग्रहादि रूप से क्रम और साधन सम्बन्धी व्यवधान रूप कर [जोग्गं] – उन स्पर्शादि मूर्त वस्तु को । कैसी स्पर्शादि मूर्त वस्तु को? इन्द्रिय ग्रहण के योग्य मूर्त वस्तुओं को [जाणदि वा तण्ण जाणादि]- स्वावरण कर्म के क्षयोपशम योग्य कुछ स्थूल को जानता है तथा विशेष क्षयोपशम का अभाव होने से सूक्ष्म को नहीं जानता है ।
यहाँ भाव यह है – यद्यपि इन्द्रियज्ञान व्यवहार से प्रत्यक्ष कहा जाता है, तथापि निश्चय से केवलज्ञान की अपेक्षा परोक्ष ही है; और परोक्षज्ञान, जितने अंशों में सूक्ष्म पदार्थ को नहीं जानता उतने अंशों में मन के खेद का कारण होता है, और खेद दुःख हैं- इसप्रकार दुःख को उत्पन्न करने वाला होने से इन्द्रियज्ञान हेय है ।