ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 56 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
फासो रसो य गंधो वण्णो सद्दो य पोग्गला होंति । (56)
अक्खाणं ते अक्खा जुगवं ते णेव गेण्हंति ॥58॥
अर्थ:
[स्पर्श:] स्पर्श, [रस: च] रस, [गंध:] गंध, [वर्ण:] वर्ण [शब्द: च] और शब्द [पुद्गला:] पुद्गल हैं, वे [अक्षाणां भवन्ति] इन्द्रियों के विषय हैं [तानि अक्षाणि] (परन्तु) वे इन्द्रियाँ [तान्] उन्हें (भी) [युगपत्] एक साथ [न एव गृह्णन्ति] ग्रहण नहीं करतीं (नहीं जान सकतीं) ॥५६॥
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ चक्षुरादीन्द्रियज्ञानं रूपादिस्वविषयमपि युगपन्न जानाति तेन कारणेन हेयमिति निश्चिनोति --
फासो रसो य गंधो वण्णो सद्दो य पोग्गला होंति स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दाः पुद्गला मूर्ताभवन्ति । ते च विषयाः । केषाम् । अक्खाणं स्पर्शनादीन्द्रियाणां । ते अक्खा तान्यक्षाणीन्द्रियाणी कर्तृणि जुगवं ते णेव गेण्हंति युगपत्तान् स्वकीयविषयानपि न गृह्णन्ति न जानन्तीति । अयमत्राभिप्रायः --
यथासर्वप्रकारोपादेयभूतस्यानन्तसुखस्योपादानकारणभूतं केवलज्ञानं युगपत्समस्तं वस्तु जानत्सत् जीवस्य सुखकारणं भवति, तथेदमिन्द्रियज्ञानं स्वकीयविषयेऽपि युगपत्परिज्ञानाभावात्सुखकारणं न भवति ॥५६॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
अब, चक्षु आदि इन्द्रिय-ज्ञान, रूपादि अपने विषय को भी एक साथ नहीं जानता है, अत: हेय है; ऐसा निश्चय करते हैं -
[फासो रसो य गंधो वण्णो सद्दो व पुग्गला होंति] - स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द पुद्गल मूर्त हैं । और वे विषय हैं । वे किनके विषय हैं? [अक्खाणं] - वे स्पर्शनादि इन्द्रियों के विषय हैं । [ते अक्खा] - वे इन्द्रियरूप कर्ता (इस वाक्य में कर्ता के स्थानीय वे इन्द्रियाँ) [जुगवं ते णेव गेण्हंति]- एक साथ उन अपने विषयों को भी ग्रहण नहीं करतीं - जानती नहीं हैं ।
यहाँ अभिप्राय यह है - जैसे सर्व प्रकार से उपादेयभूत (प्रगट करने योग्य) अनन्त सुख का उपादान कारणभूत केवलज्ञान, एक साथ सम्पूर्ण वस्तुओं को जानता हुआ जीव के सुख का कारण है, वैसे अपने विषय में भी एक साथ जानकारी का अभाव होने से यह इन्द्रिय-ज्ञान, सुख का कारण नहीं है ।