ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 61 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
णाणं अत्थंतगयं लोयालोएसु वित्थडा दिट्ठी । (61)
णट्ठमणिट्ठं सव्वं इट्ठं पुण जं तु तं लद्धं ॥63॥
अर्थ:
[ज्ञानं] ज्ञान [अर्थान्तगतं] पदार्थों के पार को प्राप्त है [दृष्टि:] और दर्शन [लोकालोकेषु विस्तृता:] लोकालोक में विस्तृत है; [सर्वं अनिष्टं] सर्व अनिष्ट [नष्टं] नष्ट हो चुका है [पुन:] और [यत् तु] जो [इष्टं] इष्ट है [तत्] वह सब [लब्धं] प्राप्त हुआ है । (इसलिये केवल, अर्थात् केवलज्ञान सुखस्वरूप है) ॥६१॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ पुनरपि केवलस्य सुखस्वरूपतां निरूपयन्नुपसंहरति -
स्वभावप्रतिघाताभावहेतुकं हि सौख्यम् । आत्मनो हि दृशिज्ञप्ती स्वभाव: तयोर्लोकालोक-विस्तृतत्वेनार्थान्तगतत्वेन च स्वच्छन्दविजृम्भितत्वाद्भवति प्रतिघाताभाव: । ततस्तद्धेतुकं सौख्यमभेदविवक्षायां केवलस्य स्वरूपम् । किंच केवलं सौख्यमेव; सर्वानिष्टप्रहाणात्, सर्वेष्टोपलम्भाच्च । यतो हि केवलावस्थायां सुखप्रतिपत्तिविपक्षभूतस्य दु:खस्य साधनतामुपगतमज्ञानमखि-लमेव प्रणश्यति, सुखस्य साधनीभूतं तु परिपूर्णं ज्ञानमुपजायेत, तत: केवलमेव सौख्य-मित्यलं प्रपञ्चेन ॥६१॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, पुनः 'केवल (अर्थात् केवलज्ञान) सुखस्वरूप है' ऐसा निरूपण करते हुए उपसंहार करते हैं :-
सुख का कारण स्वभाव-प्रतिघात का अभाव है । आत्मा का स्वभाव दर्शन-ज्ञान है; (केवल दशा में) उनके (दर्शन-ज्ञान के) प्रतिघात का अभाव है, क्योंकि दर्शन लोकालोक मे विस्तृत होने से और ज्ञान पदार्थों के पार को प्राप्त होने से वे (दर्शन-ज्ञान) स्वच्छन्दता-पूर्वक (स्वतंत्रतापूर्वक, बिना अंकुश, किसी से बिना दबे) विकसित हैं (इस प्रकार दर्शन-ज्ञान रूप स्वभाव के प्रतिघात का अभाव है) इसलिये स्वभाव के प्रतिघात का अभाव जिसका कारण है ऐसा सुख अभेद-विवक्षा से केवलज्ञान का स्वरूप है ।
(प्रकारान्तर से केवलज्ञान की सुखस्वरूपता बतलाते हैं) और, केवल अर्थात् केवलज्ञान सुख ही है, क्योंकि सर्व अनिष्टों का नाश हो चुका है और सम्पूर्ण इष्ट की प्राप्ति हो चुकी है । केवल-अवस्था में, सुखोपलब्धि के विपक्षभूत दुःखों के साधनभूत अज्ञान का सम्पूर्णतया नाश हो जाता है और सुख का साधनभूत परिपूर्ण ज्ञान उत्पन्न होता है, इसलिये केवल ही सुख है । अधिक विस्तार से बस हो ॥६१॥