ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 62 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
न श्रद्दधति सौख्यं सुखेषु परममिति विगतघातिनाम् । (62)
श्रुत्वा ते अभव्या भव्या वा तत्प्रतीच्छन्ति ॥64॥
अर्थ:
’[विगतघातिनां] जिनके घाति-कर्म नष्ट हो गये हैं उनका [सौख्यं] सुख [सुखेषु परमं] (सर्व) सुखों में परम अर्थात् उत्कृष्ट है' [इति श्रुत्वा] ऐसा वचन सुनकर [न श्रद्दधति] जो श्रद्धा नहीं करते [ते अभव्या:] वे अभव्य हैं; [भव्या: वा] और भव्य [तत्] उसे [प्रतीच्छन्ति] स्वीकार (आदर) करते हैं - उसकी श्रद्धा करते हैं ॥६२॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ केवलिनामेव पारमार्थिक- सुखमिति श्रद्धापयति -
इह खलु स्वभावप्रतिघातादाकुलत्वाच्च मोहनीयादिकर्मजालशालिनां सुखभासेऽप्य-पारमार्थिकी सुखमिति रूढि: । केवलिनां तु भगवतां प्रक्षीणघातिकर्मणां स्वभावप्रतिघाता-भावादनाकुलत्वाच्च यथोदितस्य हेतोर्लक्षणस्य च सद्भावात्पारमार्थिकं सुखमिति श्रद्धेयम् । न किलैवं येषां श्रद्धानमस्ति ते खलु मोक्षसुखसुधापानदूरवर्तिनो मृगतृष्णाम्भोभारमेवा-भव्या: पश्यन्ति । ये पुनरिदमिदानीमेव वच: प्रतीच्छन्ति ते शिवश्रियो भाजनं समासन्नभव्या: भवन्ति । ये तु पुरा प्रतीच्छन्ति ते तु दूरभव्या इति ॥६२॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, ऐसी श्रद्धा कराते हैं कि केवलज्ञानियों को ही पारमार्थिक-सुख होता है :-
इस लोक में मोहनीय आदि कर्मजाल वालों के स्वभाव प्रतिघात के कारण और आकुलता के कारण सुखाभास होने पर भी उस सुखाभास को 'सुख' कहने की अपारमार्थिक रूढ़ि है; और जिनके घाति-कर्म नष्ट हो चुके हैं ऐसे केवली-भगवान के, स्वभाव-प्रतिघात के अभाव के कारण और अनाकुलता के कारण सुख के यथोक्त १कारण का और २लक्षण का सद्धाव होने से पारमार्थिक सुख है - ऐसी श्रद्धा करने योग्य है । जिन्हें ऐसी श्रद्धा नहीं है वे - मोक्षसुख के सुधापान से दूर रहने वाले अभव्य-मृगतृष्णा के जलसमूह को ही देखते (अनुभव करते) हैं; और जो उस वचन को इसी समय स्वीकार (श्रद्धा) करते हैं वे- शिवश्री के (मोक्ष-लक्ष्मी के) भाजन- आसन्न-भव्य हैं, और जो आगे जाकर स्वीकार करेंगे वे दूर-भव्य हैं ॥६२॥
१सुख का कारण स्वभाव प्रतिघात का अभाव है
२सुख का लक्षण अनाकुलता है