ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 64 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
जेसिं विसएसु रदी तेसिं दुक्खं वियाण सब्भावं । (64)
जइ तं ण हि सब्भावं वावारो णत्थि विसयत्थं ॥66॥
अर्थ:
[येषां] जिन्हें [विषयेषु रति:] विषयों में रति है, [तेषां] उन्हें [दुःख] दुःख [स्वाभावं] स्वाभाविक [विजानीहि] जानो; [हि] क्योंकि [यदि] यदि [तद्] वह दुःख [स्वभावं न] स्वभाव न हो तो [विषयार्थं] विषयार्थ में [व्यापार:] व्यापार [न अस्ति] न हो ॥६४॥
तात्पर्य-वृत्ति:
अथयावदिन्द्रियव्यापारस्तावद्दुःखमेवेति कथयति --
जेसिं विसएसु रदी येषां निर्विषयातीन्द्रिय-परमात्मस्वरूपविपरीतेषु विषयेषु रतिः तेसिं दुक्खं वियाण सब्भावं तेषां बहिर्मुखजीवानांनिजशुद्धात्मद्रव्यसंवित्तिसमुत्पन्ननिरुपाधिपारमार्थिकसुखविपरीतं स्वभावेनैव दुःखमस्तीति विजानीहि । कस्मादिति चेत् । पञ्चेन्द्रियविषयेषु रतेरवलोकनात् । जइ तं ण सब्भावं यदि तद्दुःखं स्वभावेन नास्तिहि स्फुटं वावारो णत्थि विसयत्थं तर्हि विषयार्थं व्यापारो नास्ति न घटते । व्याधिस्थानामौषधेष्विव विषयार्थं व्यापारो दृश्यते चेत्तत एव ज्ञायते दुःखमस्तीत्यभिप्रायः ॥६४॥
एवं परमार्थेनेन्द्रियसुखस्यदुःखस्थापनार्थं गाथाद्वयं गतम् ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
अब जो इन्द्रिय व्यापार है वह दुःख ही है, ऐसा कहते हैं -
[जेसिं विसएसु रदी] - जिनके निर्विषय अतीन्द्रिय परमात्मस्वरूप से विपरीत विषयों में प्रीति है, [तेसिं दुक्खं वियाण सब्भावं] - उन बर्हिमुख जीवों के निज शुद्धात्मद्रव्य की संवित्ति से उत्पन्न निरुपाधि पारमार्थिक सुख से विपरीत दुःख स्वभाव से ही है - ऐसा जानना चाहिये । उनके स्वभाव से दुःख है- यह कैसे ज्ञात होता है? पंचेन्द्रिय विषयों में प्रीति दिखाई देने से यह ज्ञात होता है । [जइ तं ण हि सब्भावं] - यदि वास्तव में वह दुःख उनके स्वभाव से नहीं होता [वावारो णत्थि विसयत्थम] - तो उनका विषयों के लिए व्यापार घटित नहीं होता । व्याधि-निवारण के लिये औषधि में प्रवृत्ति के समान यत: उनका विषयों में प्रवर्तन देखा जाता है- इससे ही यह ज्ञात होता है कि उनके दुःख है - यह अभिप्राय है ।