ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 65 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
पप्पा इट्ठे विसये फासेहिं समस्सिदे सहावेण । (65)
परिणममाणो अप्पा सयमेव सुहं ण हवदि देहो ॥67॥
अर्थ:
[स्पशैं: समाश्रितान्] स्पर्शनादिक इन्द्रियाँ जिनका आश्रय लेती हैं ऐसे [इष्टान् विषयान्] इष्ट विषयों को [प्राप्य] पाकर [स्वभावेन] (अपने शुद्ध) स्वभाव से [परिणममानः] परिणमन करता हुआ [आत्मा] आत्मा [स्वयमेव] स्वयं ही [सुख] सुखरूप (इन्द्रिय-सुखरूप) होता है [देह: न भवति] देह सुखरूप नहीं होती ॥६५॥
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ मुक्तात्मनां शरीराभावेऽपि सुखमस्तीति ज्ञापनार्थं शरीरं सुख-कारणं न स्यादिति व्यक्तीकरोति --
पप्पा प्राप्य । कान् । इट्ठे विसए इष्टपञ्चेन्द्रियविषयान् । कथंभूतान् । फासेहिं समस्सिदे स्पर्शनादीन्द्रियरहितशुद्धात्मतत्त्वविलक्षणैः स्पर्शनादिभिरिन्द्रियैः समाश्रितान् सम्यक्प्राप्यान् ग्राह्यान्, इत्थंभूतान् विषयान् प्राप्य । स कः । अप्पा आत्मा कर्ता । किंविशिष्टः । सहावेण परिणममाणो अनन्तसुखोपादानभूतशुद्धात्मस्वभावविपरीतेनाशुद्धसुखोपादानभूतेनाशुद्धात्मस्वभावेनपरिणममानः । इत्थंभूतः सन् सयमेव सुहं स्वयमेवेन्द्रियसुखं भवति परिणमति । ण हवदि देहो देहः पुनरचेतनत्वात्सुखं न भवतीति । अयमत्रार्थः --
कर्मावृतसंसारिजीवानां यदिन्द्रियसुखं तत्रापि जीवउपादानकारणं, न च देहः । देहकर्मरहितमुक्तात्मनां पुनर्यदनन्तातीन्द्रियसुखं तत्र विशेषेणात्मैवकारणमिति ॥६५॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
(अब, शरीर सुख का कारण नहीं है - इस तथ्य की प्रतिपादक दो गाथाओं वाला पाँचवे स्थल का दूसरा भाग प्रारम्भ होता है ।)
अब सिद्धात्माओं के शरीर का अभाव होने पर भी सुख है - यह बताने के लिये शरीर सुख का कारण नहीं है, यह स्पष्ट करते हैं –
[पप्पा] - प्राप्तकर । किन्हें प्राप्तकर? [इट्ठे विसये] - इष्ट-पंचेन्द्रिय विषयों को प्राप्त कर । कैसे विषयों को प्राप्त कर? [फासेहि समस्सिदे] - स्पर्शनादि इन्द्रियों से रहित शुद्धात्मतत्व से विलक्षण स्पर्शनादि इन्द्रियों द्वारा अच्छी तरह से प्राप्त-ग्रहण करने के योग्य विषयों को प्राप्तकर । उन विषयों को वह कौन प्राप्त कर? [अप्पा] - आत्मारूप कर्ता- इस वाक्य का कर्ता आत्मा उन्हें प्राप्त कर । वह आत्मा किस विशेषता वाला है? [सहावेण परिणममानो] – अनंत-सुख के उपादानभूत शुद्धात्म-स्वभाव से विपरीत अशुद्ध-सुख के उपादानभूत अशुद्धात्म-स्वभाव से परिणमित होता हुआ - ऐसा होता हुआ [सयमेव सुहं] - स्वयं ही इन्द्रिय-सुखरूप परिणमित होता है । [ण हवदि देहो] - तथा शरीर अचेतन होने से सुखरूप नहीं है ।
यहाँ अर्थ यह है-कर्म से आच्छादित संसारी जीवों के जो इन्द्रिय-सुख है, उसमें भी जीव उपादान कारण है; शरीर नहीं । और शरीर तथा कर्म से रहित मुक्तात्माओं के जो अनन्त अतीन्द्रिय-सुख है, उसमें तो विशेष रूप से आत्मा ही कारण है ।