ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 104
From जैनकोष
तं चाधिकुर्वाणा: सामायिके स्थिता एवंविधं संसारमोक्षयो: स्वरूपं चिन्तयेयुरित्याह --
अशरणमशुभमनित्यं दुःखमनात्मानमावसामि भवम्
मोक्षस्तद्विपरीतात्मेति ध्यायन्तु सामयिके ॥104॥
टीका:
तथा सामायिके स्थिता ध्यायन्तु । कम् ? भवं स्वोपात्तकर्मवशाच्चतुर्गतिपर्यटनम् । कथम्भूतम् ? अशरणं न विद्यते शरणमपायपरिरक्षकं यत्र । अशुभमशुभकारणप्रभवत्वादशुभकार्यकारित्वाच्चाशुभम् । तथाऽनित्यं चतसृष्वपि गतिषु पर्यटनस्य नियतकाललयाऽनित्यत्वादनित्यम् । तथा दु:खहेतुत्वाद्दु:खम् । तथानात्मानमात्मस्वरूपं न भवति । एवंविधं भवमावसामि एवंविधे भवे तिष्ठामीत्यर्थ: । यद्येवंविध: संसारस्तर्हि मोक्ष: कीदृश इत्याह- मोक्षस्तद्विपरीतात्मा तस्मादुक्तभवस्वरूपाद्विपरीतस्वरूपत: शरणशुभादिस्वरूप: इत्येवं ध्यायन्तु चिन्तयन्तु सामायिके स्थिता: ॥
सामायिक के समय चिन्तन
अशरणमशुभमनित्यं दुःखमनात्मानमावसामि भवम्
मोक्षस्तद्विपरीतात्मेति ध्यायन्तु सामयिके ॥104॥
टीकार्थ:
सामायिक में स्थित गृहस्थ इस प्रकार विचार करे- अपने उपार्जित कर्मों के द्वारा जीव चारों गतियों में भ्रमण करता है, वह भव कहलाता है । इस भव-संसार में मृत्यु से बचाने वाला कोई भी रक्षक नहीं है । अशुभ कारणों से उत्पन्न होने तथा अशुभ कार्य को करने के कारण अशुभ है । चारों गतियों में परिभ्रमण करने का काल नियत होने से अनित्य है । दु:ख का कारण होने से दु:खरूप है और आत्मस्वरूप से भिन्न होने के कारण अनात्मा है । ऐसी संसार की स्थिति है तथा मैं इस संसार में स्थित हूँ, इस प्रकार का विचार सामायिक में स्थित श्रावक करे । तथा मोक्ष इस संसार के विपरीत है अर्थात् शरणरूप है, शुभ है, नित्यादिरूप है । इस प्रकार मोक्ष के स्वरूप का भी विचार करे ।