ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 23
From जैनकोष
देवतामूढं व्याख्यातुमाह -
वरोपलिप्सयाशावान् रागद्वेषमलीमसाः
देवता यदुपासीत देवतामूढमुच्यते ॥23॥
टीका:
देवतामूढं='तदुच्यते'। यदुपासीत आराधयेत् । का: देवता: । कथम्भूता: रागद्वेषमलीमसा: रागद्वेषाभ्यां मलीमसा: मलिना: । किंविशिष्टा: ? आशावान् ऐहिकफलाभिलाषी । कया ? वरोपलिप्सया वरस्य वाञ्छितफलस्य, उपलिप्सया प्राप्तुमिच्छया । नन्वेवं श्रावकादीनां शासनदेवतापूजाविधानादिकं सम्यग्दर्शनम्लानताहेतु: प्राप्नोतीति चेत् एवमेतत् यदि वरोपलिप्सया कुर्यात् । यदा तु शासनसक्तदेवतात्वेन तासां तत्करोति तदा न तन्म्लानताहेतु: । तत् कुर्वतश्च दर्शनपक्षपाताद्वरमयाचितमपि ता: प्रयच्छन्त्येव । तदकरणे चेष्टदेवता विशेषात् फलप्राप्तिर्विघ्नतो झटिति न सिद्धयति । न हि चक्रवर्तिपरिवारापूजने सेवकानां चक्रवर्तिन: सकाशात् तथा फलप्राप्तिर्दृष्टा ॥२३॥
अब देवमूढ़ता का व्याख्यन करने के लिए कहते हैं-
वरोपलिप्सयाशावान् रागद्वेषमलीमसाः
देवता यदुपासीत देवतामूढमुच्यते ॥23॥
टीकार्थ:
जो पुरुष इच्छित फल को प्राप्त करने की अभिलाषा से राग-द्वेष से मलिन देवोंकी उपासना करता है, उसकी इस उपासना को देवमूढ़ता कहते हैं।यहाँ कोई प्रश्न करता है कि यदि ऐसा है तो श्रावक आदि का शासन देवों के पूजाविधान आदि करना सम्यग्दर्शन की मलिनता को प्राप्त करने का कारण होता है । इसका उत्तर यह है कि यदि धन, पुत्रादि वाञ्छित फल प्राप्त करने की इच्छा से किया जाता है, तो अवश्य ही सम्यग्दर्शन की मलिनता का कारण है। किन्तु यदि जैनशासन के संरक्षण एवं संवर्धन के निमित्त निरत उन देवों की उपासना की जाती है, अर्थात् उनका यथायोग्य आदर-सत्कार किया जाता है, तब वह सम्यग्दर्शन की मलिनता का कारण नहीं होता। ऐसा करने वाले पुरुष को सम्यग्दर्शन का पक्ष होने के कारण देवता बिना याचना किये भी वाञ्छित फल प्रदान कर देते हैं । यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो इष्ट देवता विशेष से वाञ्छित फल की प्राप्ति निर्विघ्नरूप से शीघ्र नहीं होती, क्योंकि चक्रवर्ती के परिवार (परिकर) की पूजा के बिना सेवकों को चक्रवर्ती से फल की प्राप्ति नहीं देखी जाती है ।