ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 24
From जैनकोष
इदानीं सद्दर्शनस्वरूपे पाषण्डिमूढस्वरूपं दर्शयन्नाह-
सग्रन्थारम्भहिंसानां संसारावर्तवर्तिनाम्
पाषण्डिनां पुरस्कारो ज्ञेयं पाषण्डिमोहनम् ॥24॥
टीका:
पाषण्डिमोहनं । ज्ञेयं ज्ञातव्यम् । कोऽसौ ? पुरस्कार: प्रशंसा । केषाम् ? पाषण्डिनां मिथ्यादृष्टिलिङ्गिनाम् । किंविशिष्टानाम् ? सग्रन्थारम्भहिंसानां ग्रन्थाश्च दासीदासादय:, आरम्भाश्च कृष्णादय: हिंसाश्च अनेकविधा: प्राणिविधा: सह ताभिर्वर्तन्त इत्येवं ये तेषां । तथा संसारावर्तवर्तिनां संसारे आवर्तो भ्रमणं येभ्यो विवाहादिकर्मभ्यस्तेषु वर्तते इत्येवं शीलास्तेषां, एतैस्त्रिभिर्मूढैरपोढत्वसम्पन्नं सम्यग्दर्शनं संसारोच्छित्तिकारणम् अस्मयत्वसम्पन्नवत् ॥२४॥
अब सम्यग्दर्शन के स्वरूप में पाखण्डि मूढ़ता का स्वरूप दिखाते हुए कहते हैं-
सग्रन्थारम्भहिंसानां संसारावर्तवर्तिनाम्
पाषण्डिनां पुरस्कारो ज्ञेयं पाषण्डिमोहनम् ॥24॥
टीकार्थ:
जो दासी-दास आदि परिग्रह, खेती आदि आरम्भ और अनेक प्रकार की प्राणिवधरूप हिंसा से सहित हैं तथा जो संसार-भ्रमण कराने वाले , ऐसे साधुओं की प्रशंसा करना, उन्हें धार्मिक कार्यों में अग्रसर करना पाखण्ड मूढ़ता जाननी चाहिये। पाखण्डी का अर्थ मिथ्या वेषधारी गुरु होता है ।मूढ़ता अविवेक को कहते हैं। इस प्रकार गुरु के विषय में जो अविवेक है, वह पाखण्ड मूढ़ता है । उपर्युक्त तीन मूढ़ताओं से रहित सम्यग्दर्शन ही संसार के उच्छेदन का कारण है। जैसा कि आठ मदों से रहित सम्यग्दर्शन संसार के नाश का कारण है ।