ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 29
From जैनकोष
एकस्य धर्मस्य विविधं फलं प्रकाश्येदानीमुभयोर्धर्माधर्मयोर्यथाक्रमं फलं दर्शयन्नाह --
श्वापि देवोऽपि देवः श्वा जायते धर्मकिल्विषात्
कापि नाम भवेदन्या सम्पद्धर्माच्छरिरीणाम् ॥29॥
टीका:
श्वापि कुक्कुरोऽपि देवो जायते । देवोऽपि देव: श्वा जायते । कस्मात् ? धर्मकिल्विषात् धर्ममाहात्म्यात् खलु श्वापि देवो भवति । किल्विषात् पापोदयात् पुनर्देवोऽपि श्वा भवति यत एवं, तत: कापि वाचामगोचरा । नाम स्फुटम् । अन्या अपूर्वाऽद्वितीया । सम्पद् विभूतिविशेषो । भवेत् । कस्मात्? धर्मात् । केषाम्? शरीरिणां संसारिणां यत एवं ततो धर्म एव प्रेक्षावतानुष्ठातव्य: ॥२९॥
अभी तक एक धर्म के ही विविध फलों को प्रकाशित किया, अब यहाँ धर्म और अधर्म दोनों का फल एक ही श्लोक में यथाक्रम से दिखलाते हुए कहते हैं-
श्वापि देवोऽपि देवः श्वा जायते धर्मकिल्विषात्
कापि नाम भवेदन्या सम्पद्धर्माच्छरिरीणाम् ॥29॥
टीकार्थ:
सम्यग्दर्शनादिरूप धर्म के माहात्म्य से कुत्ता भी देवपर्याय को प्राप्त कर लेता है और मिथ्यात्वादि अधर्म-पाप के उदय से देव भी कुत्ता हो जाता है । इस तरह धर्म का अद्वितीय माहात्म्य है कि जिससे संसारी प्राणियों को ऐसी सम्पदा की प्राप्ति होती है जो वचनों के द्वारा कही नहीं जा सकती, इसलिए प्रेक्षावानों को धर्म का ही अनुष्ठान करना चाहिए ।