ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 31
From जैनकोष
ननु मोक्षमार्गस्य रत्नत्रयरूपत्वात् कस्माद्दर्शनस्यैव प्रथमत: स्वरूपाभिधानं कृतमित्याह-
दर्शनं ज्ञानचारित्रात्साधिमानमुपाश्नुते
दर्शनं कर्णधारं तन्मोक्षमार्गे प्रचक्षते ॥31॥
टीका:
दर्शनं कर्तृ उपाश्रुते प्राप्रोति कम् ? साधिमानं साधुत्वमुत्कृष्टत्वं वा । कस्मात् ? ज्ञानचारित्रात् । यतश्च साधिमानं तस्माद्दर्शनमुपाश्रुते । तत् तस्मात् । मोक्षमार्गे रत्नत्रयात्मके दर्शनं कर्णधारं प्रधानं प्रचक्षते । यथैव हि कर्णधारस्य नौखेवटकस्य कैवर्तकस्याधीना समुद्रपरतीरगमने नाव: प्रवृत्ति: तथा संसारसमुद्रपर्यन्तगमने सम्यग्दर्शनकर्णधाराधीना मोक्षमार्गनाव: प्रवृत्ति: ॥३१॥
यहाँ कोई प्रश्न करता है कि मोक्षमार्ग तो रत्नत्रयरूप है, फिर सबसे पहले सम्यग्दर्शन का ही स्वरूप क्यों कहा गया ? इसका उत्तर देते हैं-
दर्शनं ज्ञानचारित्रात्साधिमानमुपाश्नुते
दर्शनं कर्णधारं तन्मोक्षमार्गे प्रचक्षते ॥31॥
टीकार्थ:
जिस प्रकार समुद्र के उस पार जाने के लिए नाव को उस पार पहुँचाने में खेवटिया-मल्लाह की प्रधानता होती है, उसी प्रकार संसार-समुद्र से पार होने के लिए मोक्षमार्गरूपी नाव की प्रवृत्ति सम्यग्दर्शनरूप कर्णधार के अधीन होती है । इसी कारण मोक्षमार्ग में ज्ञान और चारित्र की अपेक्षा सम्यग्दर्शन को श्रेष्ठता या उत्कृष्टता प्राप्त होती है ।