ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 44
From जैनकोष
तथा -
लोकालोकविभक्तेर्युगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च
आदर्शमिव तथामतिरवैति करणानुयोगं च ॥3॥
टीका:
तथा तेन प्रथमानुयोगप्रकारेण । मतिर्मननं श्रुतज्ञानम् । अवैति जानाति । कम् ? करणानुयोगं लोकालोकविभागं पञ्चसङ्ग्रहादिलक्षणम् । कथम्भूतमिव ? आदर्शमिव यथा आदर्शो दर्पणो मुखादेर्यथावत्स्वरूपप्रकाशकस्तथा करणानुयोगोऽपि स्वविषयस्यायं प्रकाशक: । लोकालोकविभक्ते: लोक्यन्ते जीवादय: पदार्था यत्रासौ लोकस्त्रिचत्वारिंशदधिकशतत्रयपरिमितरज्जुपरिमाण:, तद्विपरीतोऽलोकोऽनन्तमानावच्छिन्न शुद्धाकाशस्वरूप: तयोर्विभक्तिर्विभागो भेदस्तस्या: आदर्शमिव । तथा युगपरिवृत्ते: युगस्य कालस्योत्सर्पिण्यादे: परिवृत्ति: परावर्तनं तस्या आदर्शमिव। तथा चतुर्गतीनां च नरकतिर्यग्मनुष्यदेवलक्षणानामादर्शमिव ॥३॥
करणानुयोग का लक्षण-
लोकालोकविभक्तेर्युगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च
आदर्शमिव तथामतिरवैति करणानुयोगं च ॥3॥
टीकार्थ:
जिस प्रकार सम्यग्श्रुतज्ञान प्रथमानुयोग को जानता है, उसी प्रकार करणानुयोग को भी जानता है । करणानुयोग में लोक-अलोक का विभाग तथा पंचसंग्रह आदि भी समाविष्ट हैं । यह करणानुयोग दर्पण के समान है । अर्थात् जिस प्रकार दर्पण मुख आदि के यथार्थ स्वरूप का दर्शक है, उसी प्रकार करणानुयोग भी स्व-विषय का प्रकाशक होता है । जिसमें जीवादि पदार्थ देखे जाते हैं, उसे लोक कहते हैं । यह लोक तीन सौ तैंतालीस राजू प्रमाण है । इसके विपरीत अनन्त प्रमाणरूप जो शुद्ध-परद्रव्यों के संसर्ग से रहित आकाश है, वह अलोक कहलाता है ।
उत्सर्पिण-अवसर्पिणी आदि काल के भेदों को युग कहते हैं । इनमें सुखमादि छह काल का परिवर्तन होता है, वह युग-परिवर्तन है । नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देवादि लक्षण वाली चार गतियाँ हैं । करणानुयोग इन सबका विशद् वर्णन करने के लिए दर्पण के समान है ।