ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 2 - सूत्र 12
From जैनकोष
283. पुनरपि संसारिणां भेदप्रतिपत्त्यर्थमाह -
283. अब फिरसे भी संसारी जीवोंके भेदोंका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –
संसारिणस्त्रसस्थावरा:।।12।।
तथा संसारी जीव त्रस और स्थावरके भेदसे दो प्रकार हैं।।12।।
284. ‘संसारि’ ग्रहणमनर्थकम्; प्रकृतत्वात्। क्व प्रकृतम् ? ‘संसारिणो मुक्ताश्च’ इति। नानर्थकम्, पूर्वापेक्षार्थम्। ये उक्ता: समनस्क अमनस्कास्ते संसारिण इति। यदि हि पूर्वस्य विशेषणं न स्यात्, समस्कामनस्कग्रहणं संसारिणो मुक्ताश्चेत्यनेन यथासंख्यमभिसंबध्येत। एवं च कृत्वा ‘संसारि’ ग्रहणमादौ क्रियमाणमुपपन्नं भवति[1]। तत्पूर्वापेक्षं सदुत्तरार्थमपि भवति। ते संसारिणो द्विविधा: - त्रसा: स्थावरा इति। त्रसनामकर्मोदयवशीकृतास्त्रसा[2]। स्थावरनामकर्मोदयवशवर्तिन: स्थावरा:। त्रस्यन्तीति त्रसा:, स्थानशीला: स्थावरा इति चेत् ? न; आगमविरोधात्। आगमे हि कायानुवादेन त्रसा द्वीन्द्रियादारभ्य आ अयोगकेवलिन इति। तस्मान्न चलनाचलनापेक्षं त्रसस्थावरत्वम्। कर्मोदयापेक्षमेव। त्रसग्रहणमादौ क्रियते; अल्पाच्तरत्वादभ्यर्हितत्वाच्च। सर्वोपयोगसंभवादभ्यर्हितत्वम्।
284. शंका – सूत्रमें ‘संसारी’ पदका ग्रहण करना निरर्थक है, क्योंकि वह प्रकरण प्राप्त है ? प्रतिशंका – इसका प्रकरण कहाँ है ? शंकाकार – ‘संसारिणो मुक्ताश्च’ इस सूत्रमें उसका प्रकरण है। समाधान – सूत्रमें ‘संसारी’ पदका ग्रहण करना अनर्थक नहीं है, क्योंकि पूर्व सूत्रकी अपेक्षा इस सूत्रमें ‘संसारी’ पदका ग्रहण किया है। तात्पर्य यह है कि पूर्व सूत्रमें जो समनस्क और अमनस्क जीव बतलाये हैं वे संसारी हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए इस सूत्रमें ‘संसारी’ पद दिया है। यदि ‘संसारी’ पदको पूर्वका विशेषण न माना जाय तो समनस्क और अमनस्क इनका संसारी और मुक्त इनके साथ क्रमसे सम्बन्ध हो जायेगा। और इस अभिप्रायसे ‘संसारिणो’ पदका इस सूत्रके आदिमें ग्रहण करना बन जाता है। इस प्रकार ‘संसारिणो’ पदका ग्रहण पूर्व सूत्रकी अपेक्षा से होकर अगले सूत्रके लिए भी हो जाता है। यथा – वे संसारी जीव दो प्रकारके हैं त्रस और स्थावर। जिनके त्रस नामककर्मका उदय है वे त्रस कहलाते हैं और जिनके स्थावर नामकर्मका उदय है उन्हें स्थावर कहते हैं। शंका – ‘त्रस्यन्ति’ अर्थात् जो चलते-फिरते हैं वे त्रस हैं और जो स्थिति स्वभाववाले हैं वे स्थावर हैं, क्या त्रस और स्थावरका यह लक्षण ठीक है ? समाधान – यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेमें आगमसे विरोध आता है, क्योंकि कायानुवादकी अपेक्षा कथन करते हुए आगममें बतलाया है कि द्वीन्द्रिय जीवोंसे लकर अयोगकेवली तकके सब जीव त्रस हैं, इसलिए गमन करने और न करनेकी अपेक्षा त्रस और स्थावर यह भेद नहीं है, किन्तु त्रस और स्थावर कर्मोंके उदयकी अपेक्षासे ही है। सूत्रमें त्रसपदका प्रारम्भमें ग्रहण किया है, क्योंकि स्थावर पदसे इसमें कम अक्षर हैं और यह श्रेष्ठ है। त्रस श्रेष्ठ इसलिए हैं कि इनके सब उपयोगोंका पाया जाना सम्भव है।