ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 2 - सूत्र 21
From जैनकोष
301. अत्राह, यत्तावन्मनोऽनवस्थानादिन्द्रियं न भवतीति प्रत्याख्यातं तत्किमुपयोगस्योपकारि उत नेति। तदप्युपकार्येव। ते विनेन्द्रियाणां विषयेषु स्वप्रयोजन वृत्त्यभावात्। किञ्चास्यैषां सहकारित्वमात्रमेव प्रयोजनमुतान्यदपीत्यत आह-
301. आगे कहते हैं कि मन अनवस्थित है, इसलिए वह इन्द्रिय नहीं। इस प्रकार जो मन के इन्द्रियपनेका निषेध किया है, सो यह मन उपयोगका उपकारी है या नहीं ? मन भी उपकारी है, क्योंकि मनके बिना स्पर्शादि विषयोंमें इन्द्रियाँ अपने – अपेने प्रयोजनकी सिद्धि करनेमें समर्थ नहीं होती। तो क्या इन्द्रियोंकी सहायता करना ही मनका प्रयोजन है या और भी इसका प्रयोजन है ? इसी बातको बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –
श्रुतमनिन्द्रियस्य।।21।।
श्रुत मनका विषय है।।21।।
302. श्रुतज्ञानविषयोऽर्थ: श्रुतम्। स विषयोऽनिन्द्रियस्य; परिप्राप्तश्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमस्यात्मन: [1]श्रुतार्थेऽनिन्द्रियालम्बनज्ञानप्रवृत्ते:। अथवा श्रुतज्ञानं श्रुतम्, तदनिन्द्रियस्यार्थ: प्रयोजनमिति यावत्। स्वातन्त्र्यसाध्यमिदं प्रयोजनमनिन्द्रियस्य।
302. श्रुतज्ञानका विषयभूत अर्थ श्रुत है वह अनिन्द्रिय अर्थात् मनका विषय है, क्योंकि श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशमको प्राप्त हुए जीवके श्रुतज्ञानके विषयमें मनके आलम्बनसे ज्ञानकी प्रवृत्ति होती है। अथवा श्रुत शब्दका अर्थ श्रुतज्ञान है। और वह मनका अर्थ अर्थात् प्रयोजन है। यह प्रयोजन मनके स्वत: आधीन है, इसमें उसे दूसरेके साहाय्यकी आवश्यकता नहीं लेनी पड़ती।विशेषार्थ – यहाँ श्रुत शब्दका अर्थ श्रुतज्ञानका विषय या श्रुतज्ञान किया है और उसे अनिन्द्रियका विषय बतलाया है। आशय यह है कि श्रुतज्ञानकी उपयोग दशा पाँच इन्द्रियोंके निमित्तसे न होकर केवल अनिन्द्रियके निमित्तसे होती है। इसका यह अभिप्राय नहीं कि अनिन्द्रियके निमित्तसे केवल श्रुतज्ञान ही होता है, किन्तु इसका यह अभिप्राय है कि जिस प्रकार मतिज्ञान इन्द्रिय और अनिन्द्रिय दोनोंके निमित्तसे होता है उस प्रकार श्रुतज्ञान इन दोनोंके निमित्तसे न होकर केवल अनिन्द्रियके निमित्से होता है। इन्द्रियाँ परम्परा निमित्त हैं।
303. उक्तानामिन्द्रियाणां प्रतिनियतविषयाणां स्वामित्वनिर्देशे कर्तव्ये यत्प्रथमं गृहीतं स्पर्शनं
पूर्व सूत्र
अगला सूत्र
सर्वार्थसिद्धि अनुक्रमणिका
- ↑ श्रुतस्यार्थे—मु., ता., ना.।