ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 2 - सूत्र 36
From जैनकोष
330. तेषां पुन: संसारिणां त्रिविधजन्मनामाहितबहुविकल्पनवयोनिभेदानां शुभाशुभनामर्कविपाकनिर्वर्तितानि बन्धफलानुभवनाधिष्ठानानि शरीराणि कानीत्यत आह -
330. जो तीन जन्मोंसे पैदा होते हैा और जिनके अपने अवान्तर भेदोंसे युक्त नौ यानियाँ हैं उन संसारी जीवोंके शुभ और अशुभ नामकर्मके उदयसे निष्पन्न हुए और बन्धफलके अनुभव करनेमें आधारभूत शरीर कितने हैं। अब इसी बातको दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –
औदारिकवैक्रियिकाहारकतैजसकार्मणनि शरीराणि।।36।।
औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कर्मण ये पाँच शरीर हैं।।36।।
331. विशिष्टनामकर्मोदयापादितवृत्तीनि शीर्यन्त इति शरीराणि[1]। औदारिकादप्रकृतिविशेषोदय-प्राप्तवृत्तीनि औदारिकादीनि। उदारं स्थूलम्। उदारे[2] भवं उदारं प्रयोजनमस्येति वा, औदारिकम्। अष्टगुणैश्वर्ययोगादेकानेकाणुमहच्छरीरविधिकरणं विक्रिया, सा प्रयाजनमस्येति वैक्रियिकम्। सूक्ष्मपदार्थनिर्ज्ञानार्थमसंयमपरिजिहीर्षया वा प्रमत्तसंयतेनाह्रियते निर्वर्त्यते तदित्याहारकम्। यत्तेजोनिमित्तं तेजसि वा भवं तत्तैजसम्। कर्मणां कार्यं कार्मणम्। सर्वेषां कर्मनिमित्तत्त्वेऽपि रूढिवशाद्विशिष्टविषये वृत्तिरवसेया।
331. जो विशेष नामकर्मके उदयसे प्राप्त होकर शीर्यन्ते अर्थात् गलते हैं वे शरीर हैं। इसके औदारिक आदि पाँच भेद हैं। ये औदारिक आदि प्रकृति विशेषके उदयसे होते हैं। उदार और स्थूल ये एकार्थवाची शब्द हैं। उदार शब्दसे होनेरूप अर्थमें या प्रयोजनरूप अर्थमें ठक् प्रत्यय होकर औदारिक शब्द बनता है। अणिमा आदि आठ गुणोंके ऐश्वर्यके सम्बन्धसे एक, अनेक, छोटा, बड़ा आदि नाना प्रकारका शरीर करना विक्रिया है। यह विक्रिया जिस शरीरका प्रयोजन है वह वैक्रियिक शरीर है। सूक्ष्म पदार्थका ज्ञान करनेके लिए या असंयमको दूर करनेकी इच्छासे प्रमत्तसंयत जिस शरीरकी रचना करता है वह आहारक शरीर है। जो दीप्तिका कारण है या तेजमें उत्पन्न होता है उसे तैजस शरीर कहते हैं। कर्मोंका कार्य कार्मण शरीर है। यद्यपि सब शरीर कर्मके निमित्तसे होते हैं तो भी रूढिसे विशिष्ट शरीरको कार्मण शरीर कहा है।