ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 37
From जैनकोष
अथानंतर― गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! दशाओं में मुख्य सौर्यपुर निवासी राजा समुद्रविजय के यहाँ भगवान् के गर्भ में आने के पहले से ही जो लोक को हर्षित करने वाला परम पवित्र आश्चर्य हुआ था उसे मैं कहता हूँ सो सावधान होकर सुनो ॥1॥ भगवान् नेमि जिनेंद्र के स्वर्गावतार से छह माह पहले से लेकर जंमपर्यंत― पंद्रह मास तक इंद्र को आज्ञा से राजा समुद्रविजय के घर देवों ने धन की वर्षा जारी रखी ॥2॥ वह धन की धारा प्रतिदिन, तीन बार साढ़े तीन करोड़ की संख्या का परिमाण लिये हुए पड़ती थी और उसने सब ओर याचक जगत् को संतुष्ट कर दिया था सो ठीक ही है क्योंकि धन की वर्षा करने वालों को पात्र भेद कहां होता है ? ॥3॥ उस समय पूर्वादि दिशाओं के अग्रभाग से आयी हुई दिक्कुमारी देवियां परिचर्या द्वारा माता शिवादेवी की सेवा कर रही थीं और उससे यह सूचित कर रही थीं कि जो विजयी जिन बालक, माता के गर्भ में आने वाला है उसने तीनों जगत में समस्त दिशाओं के समूह को जीत लिया है ॥4॥ पति के साथ मिलकर नाना प्रकार के अतिशय देखने से जिसकी बुद्धि अत्यंत हर्षित हो रही थी ऐसी शिवादेवी ने एक दिन रात्रि में सोते समय नीचे लिखे सोलह उत्तम स्वप्न देखे ॥5॥
पहले स्वप्न में उसने इंद्र का वह ऐरावत हाथी देखा जिसके सब ओर से निरंतर लगातार मदरूपी जल के निर्झर झर रहे थे, जिसने अपनी ध्वनि से दिशाओं को व्याप्त कर रखा था, जिस परतमाल के समान काले-काले भ्रमर झंकार कर रहे थे और जो कैलास पर्वत के समान स्थिर था ॥6॥ दूसरे स्वप्न में अंबिका का वह महावृषभ देखा जिसके सुंदर सींग थे, जिसकी कांदोल ऊँची उठ रही थी, जिसके खुर पृथिवी को खोद रहे थे, जिसकी सास्ना― गलकंबल अत्यंत लंबी थी, जिसकी पूँछ और आँखें अत्यंत दीर्घ थीं, जो रंग में सफेद था, मेघ की गर्जना के समय गंभीर शब्द कर रहा था तथा नेत्रों के लिए अत्यंत प्रिय था ॥7॥ तीसरे स्वप्न में एक ऐसा सिंह देखा जो पर्वतों को लांघने वाला था, पर्वत के अग्रभाग पर स्थित था, चंद्रमा की कला अथवा अंकुश के समान दांढों को धारण करने वाला था, शरीर का अत्यंत लंबा था, जिसका शब्द दिशाओं के अंत में विश्राम कर रहा था और जो शरद् ऋतु के घुमड़ते हुए मेघ के समान सफेद था ꠰꠰8॥ चौथे स्वप्न में वह लक्ष्मी देखी जो किसी बड़े हाथी के गंडस्थलों के समान स्थूल स्तनों से युक्त थी, शुभ हाथी घड़ों में रखे हुए सुगंधित जल से जिसका अभिषेक कर रहे थे, जो अपने हाथ में कमल लिये हुए थी और खिले हुए कमलों के आसन पर बैठी थी ॥9॥ पांचवें स्वप्न में जागती हुई के समान सावधान शिवादेवी ने निर्मल आकाश में लटकती हुई दो ऐसी उत्तम मालाएं देखी जिन्होंने अपनी पराग से भ्रमरों के समूह को लाल-लाल कर दिया था और जो अपनी भुजाओं के समान फूलों से भी कहीं अधिक सुकोमल थीं (पक्ष में फूलों के द्वारा अत्यंत कोमल थीं) ꠰꠰10॥
छठे स्वप्न में उसने निरभ्र आकाश के बीच ऐसा चंद्रमा देखा जो अपनी तीक्ष्ण किरणों (पक्ष में हाथों) से रात्रि के सघन अंधकार के समूह को नष्ट कर उदित हुआ था और रात्रिरूपी स्त्री के स्थिर अट्टहास के समान जान पड़ता था ॥11॥ सातवें स्वप्न में ऐसा सूर्य देखा जिसका मुख संपूर्ण दिन दर्शनीय था, जो संध्या को लालीरूपी सिंदूर की पराग से पिंजर वर्ण था, पूर्व दिशारूपी स्त्री के पुत्र के समान जान पड़ता था और नेत्रों के लिए चिरकाल तक सुख उत्पन्न करने वाला था ॥12 ॥ आठवें स्वप्न में उसने मत्स्यों का वह युगल देखा जो बिजली के समान चंचल शरीर का धारक था, सरसीरूपी उत्तम स्त्री के चंचल एवं समीचीन नेत्रों के युगल के समान जान पड़ता था, लंबा था, पारस्परिक स्नेह से भरा हुआ था, क्रीड़ा कर रहा था और ईर्ष्या से रहित था ॥ 13 ॥ नौवें स्वप्न में कमललोचना शिवादेवी ने अत्यंत सुगंधित जल से भरे हुए दो ऐसे कलश देखे जिनके मुख पर कमल रखे हुए थे, जो उत्तम स्वर्ण से निर्मित थे और स्वभाव से उठते हुए कुच कलश के समान जान पड़ते थे ॥14॥
तदनंतर दशवें स्वप्न में उसने एक ऐसा बड़ा सरोवर देखा जो शुभ जल से भरा हुआ था, कमलों से सुशोभित था, राजहंस आदि उत्तम पक्षियों से युक्त था, मन को हरण करने वाला था और अपने मन के समान पवित्र एवं निर्मल था ॥15॥ ग्यारहवें स्वप्न में एक ऐसा महासागर देखा जो उठती हुई ऊंची-ऊंची लहरों से भंगुर था, मूंगा, मोती, मणि और पुष्पों से सुशोभित था, फेन से युक्त था, उद्धत था तथा घूमते हुए भयंकर मगरमच्छों का घर था ॥ 16 ॥ बारहवें स्वप्न में लक्ष्मी का आसन भूत एक ऐसा सिंहासन देखा जिसे नखों के अग्रभाग एवं डाढ़ों से मजबूत, दृष्टि से देदीप्यमान और चमकती हुई सटाओं से युक्त सिंह धारण किये हुए थे तथा मणियों की कांति से जिसने दिशा रूप स्त्रियों के मुख को रक्त वर्ण कर दिया था ॥17॥ तेरहवें स्वप्न में उसने आकाशतल में ऐसा विमान देखा जो नाना प्रकार के बेल-बूटों से युक्त था, ध्वजाओं के अग्रभाग से चंचल था, उत्तम पताकारूपी भुजाओं की माला से जो नृत्य करता हुआ-सा जान पड़ता था और जो लटकती हुई मोतियों और मणियों की मालाओं से उज्ज्वल था ॥18॥ चौदहवें स्वप्न में उसने नागेंद्र का एक ऐसा विशाल देदीप्यमान भवन देखा जो फणाओं पर स्थित मणियों के प्रकाश से पृथिवी के अंधकार को नष्ट करने वाली नागकन्याओं के मधुर संगीत से व्याप्त था, देदीप्यमान मणियों से जगमगा रहा था और पृथिवी से ऊपर प्रकट हुआ था ॥ 19 ॥
पंद्रहवें स्वप्न में शिवा देवी ने उत्तम रत्नों की एक ऐसी राशि देखी जो पद्मरागमणि तथा चमकते हुए हीरों के सहित थी, उत्तमोत्तम मणियों की बड़ी-बड़ी शिखाओं से व्याप्त थी, इंद्र-धनुष से दिशाओं के अग्रभाग को रोकने वाली थी तथा आकाश का स्पर्श कर रही थी ॥20॥ और शरीरधारिणी लक्ष्मी के समान संतोष को पुष्ट करने वाली शिवा देवी ने सोलहवें स्वप्न में ऐसी अग्नि देखी जो शिखाओं से भयंकर थी, रात्रि के समय अपनी उज्ज्वल किरणों से दिशाओं के अग्रभाग को प्रकाशित कर रही थी तथा अपना सौम्य रूप दिखला रही थी॥21॥ इस प्रकार स्वप्न दर्शन के बाद कार्तिक शुक्ला षष्ठी के दिन देवों के आसनों को कंपित करते हुए भगवान् ने स्वर्ग से च्युत हो सफेद हाथी का रूप धरकर माता के मुख में प्रवेश किया । भावार्थ― आनुपूर्वी नामकर्म के उदय से भगवान् के आत्म-प्रदेशों का आकार तो पूर्व शरीर के समान ही रहता है । यहाँ जो सफेद हाथी का रूप धरकर कहा गया है उसका तात्पर्य यह है कि माता ने सोलह स्वप्न देखने के बाद देखा था कि एक सफेद हाथी आकाश से उतरकर हमारे मुख में प्रविष्ट हुआ है ॥22॥
इस प्रकार बार-बार जागने से जिन में अंतर पड़ रहा था ऐसे पूर्वोक्त निरंतराय निर्विघ्न सोलह स्वप्नों को देखकर जय-जयकार और मंगलमय संगीत से माता शिवा देवी के नेत्र निद्रारहित हो गये तथा आलस्यरहित होकर उसने शय्या छोड़ दी ॥23॥ प्रातःकाल होने पर जिसने शरीर पर मंगलमय अलंकार धारण किये थे ऐसी शिवा देवी कुतूहल वश पति के पास जाकर उन्हें प्रणाम किया तथा रात्रि में देखे हुए सब स्वप्न क्रम-क्रम से सुना दिये । तदनंतर प्रसन्न बुद्धि के धारक राजा समुद्रविजय ने उन स्वप्नों का इस प्रकार फल कहा ॥24॥ हे प्रिये ! यह प्रतिदिन पड़ने वाली आश्चर्यकारिणी धन की वृष्टि जिसकी उत्पत्ति कह रही है तथा दिक्कुमारी देवियाँ जिसके लिए आपकी सेवा करती हैं वह तीर्थंकर आज तुम्हारे गर्भ में आकर विराजमान हुआ है ॥ 25 ॥ हे सुंदर जाँघों वाली प्रिये ! यहाँ तेरे स्वप्नों का फल क्या कहा जाये ? क्योंकि तू तीर्थंकर की माता है । तेरे तीर्थकर पुत्र उत्पन्न होगा । यद्यपि स्वप्नों का इतना ही फल पर्याप्त है तथापि वह तीनों लोकों का परम गुरु जिस फल को प्राप्त होगा वह कहा जाता है सो समझ ॥26॥
हे कृशोदरि ! तूने स्वप्न में अनेकप― हाथी देखा है उसका फल यह है कि तेरा पुत्र अनेकप― अनेक जीवों की रक्षा करने वाला होगा । अपनी चाल से हाथी की चाल को विडंबित करने वाला होगा और तीनों जगत् में इच्छा के अनुरूप एक आधिपत्य को प्राप्त होगा ॥27॥ हे प्रिये ! बैल देखने से तेरा पुत्र निर्मल बुद्धि का धारक तथा जगत् का गुरु होगा और जिस प्रकार बैल गायों के कुल को अलंकृत करता है उसी प्रकार वह गुणों से अपने कुल तथा तीनों जगत् को अलंकृत करेगा । वह बैल के समान उज्ज्वल नेत्र तथा उन्नत कंधों को धारण करने वाला होगा ॥28॥ सिंह देखने से वह अनंत वीर्य का धारक होगा और जिस प्रकार सिंह मदोन्मत्त हाथियों को मदरहित कर देता है उसी प्रकार वह अत्यधिक गर्व को धारण करने वाले समस्त पुरुषों को गर्वरहित कर देगा । वह महान्, अद्वितीय धीर, वीर और अंत में तपोवन का स्वामी होगा अर्थात् दीक्षा लेकर कठिन तपश्चरण करेगा ॥ 29 ॥ हे वल्लभे ! जो तूने अभिषेक से युक्त लक्ष्मी देखी है उसका फल यह है कि उत्पन्न होते ही तेरे पुत्र का सुरेंद्र और असुरेंद्र सुमेरु पर्वत के मस्तक पर क्षीरसागर के जल से अभिषेक करेंगे और वह पर्वत के समान स्थिर होगा ॥30॥ सुगंधित मालाओं के देखने से यह सूचित होता है कि वह पुत्र तीनों जगत् में व्याप्त यश से सहित होगा, उत्तम सुगंधि को प्राप्त होगा और अपने अनंतज्ञान तथा अनंतदर्शनरूपी दृष्टि के द्वारा समस्त लोक और अलोक को भी व्याप्त करेगा ॥32॥
हे सुंदरि ! चंद्रमा के देखने से वह जिनेंद्र चंद्र, अत्यधिक दयारूपी चंद्रिका से सुंदर होगा, जगत् के अज्ञानरूपी अंधकार को नष्ट करने वाला होगा और समस्त जगत् के निरंतर आह्लाद को करने वाला होगा ॥32 ॥ सूर्य के देखने से तेरा वह पुत्र तेज का भांडार होगा और अपने बहुत भारी तेज के द्वारा समस्त तेजस्वी जनों के तेज को जीतकर तीनों लोकों को अंधकार से रहित करेगा ॥33॥ हे शिव देवि ! सुख से क्रीड़ा करती हुई मछलियों का युगल देखने से यह सूचित होता है कि तुम्हारा पुत्र विषयों के उपभोग से उत्पन्न सुख को पाकर अंत में मोक्ष के अनंत सुख को अवश्य ही प्राप्त होगा ॥34॥ सुवर्ण कलशों का युगल देखने से यह सिद्ध होता है कि तुम्हारा पुत्र हर्षपूर्वक जगत् के मनोरथों को पूर्ण करने वाला होगा और उसके प्रभाव से यह घर निधियों से परिपूर्ण हो जायेगा ॥35 ॥ नाना प्रकार के पुष्पों से युक्त कमल सरोवर के देखने से तुम्हारा वह पुत्र समस्त उत्तम लक्षणों से युक्त होगा, तृष्णारहित बुद्धि का धारक होगा और अत्यधिक दाह उत्पन्न करने वाली तृष्णारूपी प्यास से पीड़ित मनुष्यों को इसी संसार में संतोष से युक्त-सुखी करेगा ॥36॥
अमृतमय महासागर के देखने से यह सूचित होता है कि तुम्हारा पुत्र समुद्र के समान गंभीर बुद्धि का धारक होगा तथा उपदेश देकर जगत् के जीवों को कीर्तिरूपी महानदियों से परिपूर्ण श्रुतज्ञानरूपी सागर का पान करायेगा ॥37॥ उत्तम रत्नों से जिड़त सिंहासन देखने से यह प्रकट होता है कि तुम्हारे पुत्र की आज्ञा सर्वोपरि होगी और वह देदीप्यमान मणियों से जगमगाते मुकुटों पर हाथ लगाये हुए देव-दानवों से घिरे उत्तम सिंहासन पर आरूढ़ होगा ॥38॥ उत्तम विमान के देखने से यह सूचित होता है कि विमानों के स्वामी इंद्रों की पंक्तियों से उसके चरण पूजित होंगे, वह मानसिक व्यथा से रहित होगा, महान् अभ्युदय का धारक होगा और बहुत बड़े मुख्य विमान से वह यहाँ अवतार लेगा ॥32॥
नागेंद्र के निकलते हुए भवन को देखने से यह प्रकट होता है कि तुम्हारा वह पुत्र संसाररूपी पिंजड़े को भेदने वाला होगा और मतिश्रुत तथा अवधिज्ञानरूपी तीन प्रमुख नेत्रों से युक्त होगा ॥40॥ आकाश में रत्नों की राशि देखने से तुम यह विश्वास करो कि तुम्हारा पुत्र बहुत प्रकार की देदीप्यमान किरणों से अनुरंजित होगा, नाना प्रकार के गुणरूपी रत्नों की राशि उसका आश्रय लेगी और वह शरणागत जीवों को आश्रय देने वाला होगा ॥41॥ और ज्वालाओं के समूह से व्याप्त आकाश में देदीप्यमान तथा दक्षिणा वर्त से युक्त निर्धूम अग्नि के देखने से यह सिद्ध होता है कि तुम्हारा पुत्र ध्यानरूपी महाप्रचंड अग्नि को प्रकट कर समस्त कर्मों के वन को जलावेगा ॥42॥
हे प्रिये ! उस पुत्र के प्रभाव से मुकुट तथा उत्तम कुंडल आदि आभूषणों से सुशोभित इंद्र साधारण राजाओं के समान अनुकूल सेवक होकर मेरी आज्ञा को अलंकृत करेंगे ꠰। 43 ॥ अपनी चोटी में गूंथी हुई जिनकी निज को मालाएं ढीली हो रही हैं तथा जो मेखला और नूपुरों की मनोहर झंकार से युक्त हैं ऐसी इंद्र को इंद्राणियां इसके प्रभाव से सजावट आदि के कार्य में तेरी सेवा करने के लिए सदा उद्यत रहेंगी ॥44॥ हे प्रिये ! यहाँ पवित्र कर्म करने वाला जो जिनेंद्ररूपी सूर्य उत्पन्न होने वाला है उससे तुम अपने वंश को, अपने आपको, मुझको तथा इस समस्त जगत् को पवित्रित भूषित एवं संसार-सागर से उद्धृत समझो ॥ 45 ॥
इस प्रकार पति के द्वारा कहे हुए स्वप्न के फल को सुनकर रानी शिवा देवी का चित्त बहुत ही संतुष्ट हुआ और पूर्वोक्त गुण विशिष्ट पुत्र मेरी गोद में आ ही गया है, ऐसा विचारकर वह समस्त जनसमूह के मन को हरने वाली जिनपूजा आदि उत्तम क्रियाएँ करने लगीं ॥46॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि जो मनुष्य, जिनेंद्र भगवान् के जन्म से संबद्ध स्वप्नों के फल का वर्णन करने वाले इस स्तोत्र का प्रतिदिन प्रातः संध्या के समय पाठ करता है, स्मरण करता है अथवा श्रवण करता है वह जिनेंद्र भगवान् की लक्ष्मी को प्राप्त होता है ॥47॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराण में स्वप्नों के फल का वर्णन करने वाला सेंतीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥37॥