चांद्रायण
From जैनकोष
महापुराण 63.109
एक व्रत ।इसमें चंद्र गति की वृद्धि तथा हानि के क्रम मे बढ़ते और घटते ग्रास लिये जाते हैं । अमावस्या के दिन उपवास, अनंतर प्रतिपदा को एक कवल, द्वितीया के दिन दो कवल, इस प्रकार एक-एक ग्रास बढ़ाते हुए चतुर्दशी के दिन चौदह कवल का आहार पूर्णिमा के दिन उपवास, फिर चंद्रमा की कलाओं के अनुसार प्रतिदिन एक-एक ग्रास कम करते हुए अंत में अमावस्या के दिन पुन: उपवास किया जाता है । इस प्रकार इकतीस दिन में यह वत पूर्ण होता है । हरिवंशपुराण - 34.90